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जो कि समस्त पद-वाक्य रूप वाग्व्यवहार का जनयिता है, कोई कर्ता नहीं है - परम्परा से वेद में ऐसा ही स्मरण किया गया है । 'सिद्धो वर्णसमाम्नायः' तथा ‘सिद्धं नमः' पदों से वर्ण समाम्नाय अनादि सिद्ध है, यही प्रतिपादित किया गया है।
श्री वादीभसिंह ने छत्रचूड़ामणि में वर्ण समाम्नाय प्रारम्भ करने से पूर्व सिद्ध पूजन, हवन, दानादि सम्पन्न करना आवश्यक बतलाया है। इसके बाद वर्णमाला प्रारम्भ करने से परिणाम शुभ होता है, अर्थात् विद्या सिद्ध होती है, उसमें कोई विघ्न नहीं आता । जीवन्धर की निविघ्न विद्या-प्राप्ति के लिए ऐसा ही किया गया था ।
___ “निष्प्रत्य हेष्ट सिद्धयर्थ सिद्ध पूजादि पूर्वकम् ।
सिद्धमातृकया सिद्धामथ लेभे सरस्वतीम् ॥' अर्थ:--अनन्तर, निर्विघ्न विद्या-प्राप्ति के हेतु सिद्ध पूजन, हवन और दानादि को सम्पन्न कर सिद्धमातृका अ, इ, उ, क, ख आदि वर्णमाला (वर्ण समाम्नाय) को सीखना आरम्भ किया ।
डॉ० आल्टेकर ने अपने एक लेख (१० ब० अ० ग्रं० ) में लिखा है कि शिक्षा के प्रारम्भ में बालक को 'गणेशायनमः' की जगह 'ॐ नमः सिद्धानाम्' कहना होता था। डॉ० हूलर का कथन है-'इस बारहखड़ी को 'ॐ नमः सिद्धम्' के मंगलपाठ के कारण कभी-कभी 'सिद्धाक्षरसमाम्नाय' या 'सिद्धमात का' भी कहते हैं। इसकी प्राचीनता का प्रमाण हुइ-लिन (७८८ से ८१० ई.) से भी मिलता है। उसने इस मंगलपाठ को पहली फाङ या चक्र कहा है। उस काल में हिन्दू लड़के इसी से विद्यारम्भ करते थे ।" २ डॉ० राधाकुमुद मुखर्जी ने 'प्राचीन भारत में शिक्षा' ग्रंथ में विद्यारम्भ 'ओम नमः सिद्धानाम्' से माना है । व्हूलर का यह कथन सत्य है कि प्रारम्भ में सिद्ध को नमस्कार करने के कारण ही बारहखड़ी का नाम ही सिद्धमातृका अथवा सिद्धाक्षर समाम्नाय पड़ा। किन्तु, समय परिवर्तनशील है। साम्प्रदायिक भेद-भावों ने एक दूसरे के शब्दों को भी विकृत बनाया। न जाने कब बौद्ध का बुद्ध और भद्र का भद्दा हो गया। न जाने कब प्रियदर्शी को मूर्ख कहा जाने लगा। इसी प्रकार 'ओम् नमः सिद्धानाम्' जैसे प्रसिद्ध और प्रचलित मंगलपाठ को न जाने कब आगे चल कर 'ओनामासीधम्म बाप पढ़े न हम्म' । के रूप में ध्वस्त कर दिया गया। किन्तु प्रारम्भ से हिन्दी के मध्यकाल में बहुत दूर तक यह प्रतिष्ठित रहा, यह एक प्रामाणिक सत्य है और इतना ही यहाँ अभीष्ट है। इसकी प्रतिष्ठा के सम्बन्ध में महापण्डित राहुल सांकृत्यायन का एक कथन दृष्टव्य है, "ओनामासी धम्' वस्तुतः 'ओं नमः सिद्धम्' का विकृत उच्चारण है । पीछे कहीं-कहीं इसकी जगह ही कई जगहों में "रामागति/देहूमति" का प्रयोग होने लगा। कहीं-कहीं श्री गणेशायनमः' से भी अक्षरारम्भ कराया जाता रहा । 'सिद्धम्' में एक वचन का प्रयोग है, १. छत्रचूड़ामणि, १/११२. २. भारतीय पुरालिपिशास्त्र, डा. व्हूलर, पृष्ठ ६.
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