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(पूजा) पूर्वक स्थापित किया, फिर अपने दोनों हाथों से अक्षरमालिका रूप लिपि और अंकरूप संख्या संस्थान लिखना सिखाया ।
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" इत्युक्त्वा मुहुराशास्य विस्तीर्णे हेमपट्टके । अधिवास्य स्वचित्तस्थां श्रुतदेवों सपर्यया ॥ विभुः करद्वयेनाभ्यां लिखन्नक्षरमालिकां । उपदिशoिft संख्या संस्थानं चाङ्केरनुक्रमात् ॥” १
लिप संख्यान का आरम्भ करते समय, भगवान् ने 'सिद्धं नमः' इति व्यक्तमङ्गला सिद्धमातृका मन्त्र का उच्चारण किया । सिद्धमातृका स्वर व्यञ्जन के भेद से दो भेदवाली है । समस्त विद्याओं में पाई जाती है । यह अनेक बीजाक्षरों से व्याप्त है और इससे अनेक संयुक्ताक्षर उत्पन्न होते हैं । यह अकार से हकार पर्यन्त और विसर्ग, अनुस्वार, जिह्वामूलीय, उपध्मानीय तथा अयोगवाह तक शुद्ध मुक्तावली के समान अक्षरावली से प्रदीप्त रहती हैं । इस मातृका को ब्राह्मी और सुन्दरी ने अच्छी तरह धारण किया
"ततो भगवतोवक्त्रान्निःसृतामक्षरावलीम् । 'सिद्धं नम' इति व्यक्तमङ्गलां सिद्धमात्तृकाम् ॥ अकारादि हकारान्तां शुद्धां मुक्तावलीमिव । स्वरव्यञ्जनभेदेन द्विधा भेदमुपेयुषम् || सर्वविद्यासु सन्तताम् । नैकबीजाक्षरैश्चिताम् ॥
समवादोधरद् ब्राह्मी मेधाविन्यति सुन्दरी । सुन्दरी गणितं स्थानक्रमैः सम्यगधारयत् ॥ २
योगवाहपर्यन्तां संयोगाक्षरसम्भूति
वर्णमातृका के ध्यान की बात अनेक जैन ग्रंथों में देखने को मिलती है । 'तत्त्वसार दीपक सन्दर्भ' में एक रुचिकर श्लोक आया है-
"ध्यायेदनादिसिद्धान्त व्याख्यातां वर्णमातृकाम् । आदिनाथ मुखोत्पन्नां विश्वागमविधायिनीम् ॥" 3
अर्थ -- अनादि सिद्धान्त के रूप में प्रसिद्ध एवं सम्पूर्ण आगमों की निर्मात्री, भगवान् आदिनाथ के मुख से उत्पन्न वर्णमातृका का ध्यान करना चाहिए ।
वर्णमातृका अथवा वर्णसमाम्नाय के अनादि सिद्धान्त के रूप में प्रसिद्धि की बात भर्तृहरि ने अपने 'वाक्यपदीयम्' में भी लिखी है। उनका कथन है-“अस्याक्षरसमाम्नायस्य वाग्व्यवहारजनकस्य न कश्चित् कर्त्ताऽस्ति एवमेव वेदे पारम्पर्येण स्मर्यमाणम् ।" इसका अर्थ है कि-- इस अक्षर समाम्नाय का, १. भगवज्जिनसेनाचार्य, महापुराण, १६/१०३-१०४.
२. भगवज्जिनसेनाचार्य, महापुराण, १६ / १०५-१०.
३. तत्त्वसारदीपक - ३५.
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