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"प्राङमुखो गुरुरासीनः पश्चिमाभिमुखः शिशुः । कुर्यादक्षरसंस्कारं धर्मकामार्थ सिद्धये ॥ विशाल फलकादौ तु निस्तुषाखण्डतण्डुलान् । उपाध्यायः प्रसार्याथ विलिखेदक्षराणि च ॥ शिष्य हस्ताम्बुजद्वन्द्व धृतपुष्पाक्षतान् सितान् । क्षेपयित्वाक्षराभ्यणे तत्करेण विलेखयेत् ॥ हेमादिपीठके वाऽपि प्रसार्य कुङकुमादिकम् । सुवर्णलेखनीकेन, लिखेत्तत्राक्षराणि वा ॥ 'नमः सिद्धेभ्यः' इत्यादौ ततः स्वरादिकं लिखेत ।
अकारावि हकारान्तं सर्वशास्त्रप्रकाशकम् ॥"१ अर्थ-लिपि-प्रारम्भ के समय गुरु प्राङमुख और शिष्य पश्चिमाभिमुख होकर बैठे । बाद में, धर्म, अर्थ और काम की सिद्धि के लिए अक्षर-संस्कार करे । वह इस प्रकार कि एक विशाल फलक मोटी पट्टी पर छिलके-रहित अखण्ड चावलों को बिछाकर उपाध्याय स्वयं अक्षर लिखे, उन अक्षरों के पास बालक के हाथ से सफेद पुष्प और अक्षतों को क्षेपण करवावे, फिर बालक का हाथ पकड़कर, उससे अक्षर लिखवावे । अथवा सोना, चाँदी आदि के पट्ट पर कुंकुम अथवा केशर का लेप कर, सोने की लेखनी से उस पर अक्षर लिखे और बालक से लिखवाये । अक्षर लिखते समय सबसे पहले 'नमः सिद्धेभ्यः' लिख्खे । इसके बाद अकार से हकार-पर्यन्त रवर और व्यञ्जन, जो सम्पूर्ण शास्त्रों को प्रकाशित करने वाले हैं, स्वयं लिखे और बालक से लिखवावे ।
आचार्य सोमसेन भट्टारक थे और शायद इसी कारण मंत्रों में उनका अटल विश्वास था। यह सच है कि मांत्रिक की संकल्पशक्ति मंत्र को जीवन्त फलदायी प्रमाणित करती है। मंत्र कोई हो, किसी से सम्बन्धित हो। उपर्युक्त प्रसंग में, सोमसेन का कथन है कि बालक को स्वर-व्यञ्जन प्रारम्भ कराते समय निम्नलिखित मंत्रका उच्चारण करना चाहिए:----
'ॐ नमोऽर्हते नमः सर्वजाय सर्वभाषाभाषित सकलपदार्थाय बालक अक्षराभ्यास कारयामि द्वादशाङ्गश्रुतं भवतु ऐं श्रीं ह्रीं क्लीं स्वाहा।'२
लिपि' संस्कार के समय, श्रुतदेवता के स्थापन और पूजन की बात 'आदि पुराण' में भी कही गई है। भगवान् ऋषभदेव ने ब्राह्मी और सुन्दरी को विद्याग्रहण का आशीर्वाद देकर विस्तृत स्वर्ण पट्ट पर स्वचित्तस्थ श्रुतदेवता को सपर्या १. सोमसेन, त्रैवर्णिकाचार, ८.१७४-१७८. २. सोमसेन, त्रैवर्णिकाचार, पृष्ठ २५७.
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