________________
इस प्रकार एक सुनिश्चित काल में बालक को विद्यारम्भ कराना चाहिए। उस दिन, अम्बा गुरु और शास्त्र की पूजा करे तथा जिनालय में जाकर होम और जिन-पूजा सम्पन्न करे । इसके बाद बालक को स्नान कराकर वस्त्राभूषणों से अलंकृत कर और ललाट में तिलक लगाकर विद्यालय में ले जावे । वहाँ निर्विघ्न विद्या-पूर्ति के लिए जय आदि पंच देवताओं की पूजा करे, नमस्कार करे। फिर वस्त्र, आभूषण, फल और द्रव्य से अध्यापक गुरु की अभ्यर्थना करे, उन्हें भक्ति-पूर्वक हाथ जोड़कर नमस्कार करना चाहिए । आचार्य सोमसेन ने लिखा है--
"एवं सुनिश्चिते काले विद्यारम्भ तु कारयेत् । विधाय पूजामम्बायाः श्री गुरोश्च श्रुतस्य च ॥ पूर्ववद् होमपूजादिकार्यं कृत्वा जिनालये । पुत्रं संस्नाप्य सद्भूषैरलंकृत्य विलेपनैः ॥ विद्यालयं ततो गत्वा जयादि पंचदेवताः । संपूज्य प्रणमेद् भक्त्या निर्विघ्न ग्रंथसिद्धये ॥ वस्त्रैर्भूषः फलैर्द्रव्यः संपूज्याध्यापकं गुरुम् । हस्तद्वयं च संयोज्य प्रणमेद् भक्तिपूर्वकम् ॥"१
शुभ मुहूर्त में, पूजादि पवित्र कार्य सम्पन्न कर, माँ-बाप ने अपना बालक गुरु को सौंप दिया । गुरु सर्वप्रथम उसे अक्षरज्ञान और अंकज्ञान करवाता है । यह लिपि का प्रारम्भ है। यदि बालक उसे सम्यक् रूप से जान लेता है, तो आगे का ज्ञान सहज हो जाता है। इसी कारण, उस समय प्रारम्भिक शिक्षा पर अधिक बल दिया जाता था। काल, मुहूर्त, दिन, स्नान, पूजा और हवन आदि से ध्वनित है कि बालक के विद्यारभ्भ में माता-पिता गम्भीर थे तो गुरु भी उसे गम्भीरतापूर्वक ही लेता था । वह गुरु प्रतिष्ठा का जीवन जीता था। बालक को पढ़ाने में उसका मन लगता था। वह रुचि लेता था और बालक व्युत्पन्न बन जाता था।
सोमसेन ने त्रैवणिकाचार में बताया है कि अध्यापक बालक को लिपिज्ञान किस ढंग से सम्पन्न करवाये। इससे तत्कालीन लिपि-अध्यापन की शैली पर अच्छा प्रकाश पड़ता है१. सोमसेन, वैवणिकाचार, ८/१७०-१७३.
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org