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ब्रह्मचारी मनसुखसागर ने अपने 'भाषा आदिपुराण' में भरत की बहिन ब्राह्मी का उल्लेख किया है और लिखा है कि तीर्थंकर वृषभदेव ने अक्षर लिपि का ज्ञान कराया। ब्राह्मी के कारण ही वह अक्षरलिपि ब्राह्मी लिपि कहलाई। उनका कथन है--
"भरतादिक ब्राह्मी सुता, सब जन को सुखदाय । अंक लिखे ज्यौतिष गतसार, ब्राह्मी सुन्दरि निज मन धार ॥"१
ब्राह्मी का पूज्यभाव
उपर्युक्त कथन से सिद्ध है कि ब्राह्मी (ऋषभदेव की पुत्री) के नाम पर लिपि का नाम ब्राह्मी पड़ा। किसी देश, भाषा, स्थान, या वस्तु का नाम उसी व्यक्ति के नाम पर रखा जाता है, जिसने अपनी साधना से लोकख्याति प्राप्त की हो। चक्रवर्ती सम्राट भरत के नाम पर इस देश का नाम भारतवर्ष इसलिए पड़ा कि उन्होंने प्रजाओं का भरण-पोषण अपने दिल की गहराइयों से किया। प्रजा की चिन्ता उनकी अपनी चिन्ता थी। उनके भी पूर्व महाराजा नाभि के नाम पर इस देश का नाम अजनाभवर्ष था। उन्होंने भोगभूमि से कर्मभूमि में बदलते युग की समस्याओं को साधा था। इससे प्रजा के भयावह कष्ट दूर हुए थे और उन्हें राहत की सांस मिली थी। अभूतपूर्व निष्ठा, पौरुष और प्रतिभा से किया गया कोई भी कार्य अपने कर्ता को अमर बना देता है। ऋषभदेव की पुत्री ब्राह्मी ने भी लिपि के मार्ग को इतना समुन्नत और प्रशस्त किया कि वह लिपि उन्हीं के नाम से ख्याति प्राप्त हुई। ब्राह्मी साधिका थीं, उन्होंने योग साधा था, समाधि लगाई थी और उसका परिणाम थी ब्राह्मी लिपि । आगे चल कर, यह लिपि भारतीय लिपियों की जन्मदात्री बनी। हम उसके चरणों में शिरसावनत हैं।
ब्राह्मी के प्रति भारतवासियों के हृदय में सदैव श्रद्धा का भाव रहा है । वे समयसमय पर अपने श्रद्धा-विगलित भाव-सुमन उसके चरणों में अर्पित करते रहे हैं। भगवती सूत्र-जैसे प्राचीन ग्रन्थ में सूत्रकार ने ब्राह्मी लिपि को नमस्कार करते हुए लिखा है, "णमो बंभीए लिवीए,” अर्थात् ब्राह्मी लिपि को नमस्कार हो। इस सूत्र पर भाष्यकार ने कतिपय महत्त्वपूर्ण पंक्तियाँ लिखी हैं—“भावश्रुतं हि द्रव्यश्रुतं प्रति हेतुः । अक्षरात्मकं च तद् द्रव्यश्रुतं । श्रुतज्ञानस्यात्यन्तोपकारि१. मनसुखसागर, हिन्दी आदिपुराण, १४२, पृ० १४६. २. देखिए मेरा ग्रन्थ 'भरत और भारत', आमख, पृष्ठ ६-७, मिलाइए–“विस्वभरन पोषण
कर जोई । ताकर नाम भरत अस होई ।" रामचरित मानस १/१६७/७. ३. मार्कण्डेय पुराण : सांस्कृतिक अध्ययन, डा. वासुदेव शरण अग्रवाल सम्पादित, पादटिप्पड़
१, पृ० १३८, ४. सिद्धगोपाल काव्यतीर्थ, कन्नड़ साहित्य का इतिहास, पृ० ६.
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