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________________ भरत को ७२ कलाओं की शिक्षा भगवान् ऋषभदेव ने दी और ब्राह्मी को लिपि ज्ञान कराये जाने की बात 'पद्मानन्द काव्य' में भी देखने की मिलती है। वहाँ लेख की परिभाषा भी दी गई है। उसमें लिखा है कि सुन्दर और स्पष्ट लिपि लिखने को लेख कहते हैं। उसका उद्देश्य भाव और विचारों को अभिव्यञ्जित करना है। ___अनगारधर्मामृत टीका के रचयिता पं. आशाधर थे। पीछे के ग्रन्थकर्ताओं ने उन्हें सूरि और आचार्य-कल्प माना है। वे गृहस्थ थे, मुनि नहीं, किन्तु उनका पाण्डित्य और विद्वत्ता सर्वजन-विश्रुत थी। उन्होंने नालछा के नेमिचैत्यालय में बैठकर, ३५ वर्ष तक एकनिष्ठ साहित्य-साधना की। उन्होंने उस काल की सरस्वती रूपा धारानगरी के शारदा-सदन में व्याकरण और न्याय शास्त्र का अध्ययन किया था। २ उनके सम्बन्ध में पं. नाथूराम प्रेमी का कथन है, “उनकी प्रतिभा और पांडित्य केवल जैन शास्त्रों तक ही सीमित नहीं थी, इतर शास्त्रों में भी उनकी गति थी। इसीलिए उनकी रचनाओं में यथास्थान सभी शास्त्रों के उद्धरण दिखाई पड़ते हैं और इसी कारण अष्टांगहृदय, काव्यालंकार और अमरकोष जैसे ग्रंथों पर टीका लिखने के लिए वे प्रवृत्त हुए।" 3 उन्होंने लगभग बीस ग्रन्थों की रचना की । उन्हीं में एक अनगार धर्मामृत टीका' भी है। उन्होंने जो कुछ लिखा, उसका सार है कि ब्राह्मी एक देवी हैसरस्वती का अवतार । उनकी कृपा से मैत्री, प्रमोद, कारुण्य और माध्यस्थ की शिक्षा प्राप्त हो सकती है । उत्तम भावनाओं की शिक्षा ग्रहण करनी है, तो ब्राह्मी की भक्ति करो। पं.आशाधर ने लिखा है "मा भूत्कोपीह दुखी भजतु जगद्सद्धर्मशर्मेतिमैत्री, ज्यायोहृत्तेषु रज्यन्नयनमधिगुणेष्वेष्विवेति प्रमोदम् । दुखाद्रक्षेयमार्लान् कथमिति करुणां ब्राह्मि मामेहि शिक्षा, काऽद्रव्येष्वित्युपेक्षामपि परमपदाभ्युद्यता भावयन्तु ॥" अर्थ-प्राणिमात्र में दुखों के उत्पन्न न होने की आकांक्षा, मैत्री, गुणवानों में हर्षरूप मनोराग, प्रमोद, दुखियों में उदार बुद्धि कारुण्य और अनुकूल-प्रतिकूल व्यक्तियों में समता माध्यस्थ भावना है । हे ब्राह्मी ! मुझे आप ऐसी ही शिक्षा दें कि मैं इन भावनाओं में तत्पर रहूँ। १. पद्मानन्द काव्य, बड़ौदा, सन् १९३२ ई., १०/७६. २. पं. नाथूराम प्रेमी, जैन साहित्य और इतिहास, पृष्ठ ३४३. ३. वही, पृष्ठ ३४२. ४. पं० आशाधर, अनगारधर्मामृत, ४/१५१. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003641
Book TitleBrahmi Vishwa ki Mool Lipi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsagar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1975
Total Pages156
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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