SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 82
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ७१ त्वाद् द्रव्यश्रुतं नमस्कुर्वन् आह सूत्रकारः - ब्राह्म यै लिपये नमः । एषा हि द्रव्यश्रुत रूपा ब्राह्मी लिपिरित्यभिधीयते । अत्र ब्राह्मीलिपिरिति शब्दद्वयी निर्वचनमपेक्षते । तद्यथा - 'लेहं लिवी विहाणं जिणेण बंभीइ दाहिणकरेणं' अयमर्थः - 'लेखो लिपिविधानं तद्दणिक्षहस्तेन जिनेन ब्राह्म या दर्शितमिति । तस्माद् ब्राह्मी नाम्नी सा लिपि: । " " इसका अर्थ है - भावश्रुत ही द्रव्यश्रुत के प्रति हेतु है, अर्थात् कारणरूप है । द्रव्यश्रुत अक्षरात्मक होता है —— अक्षरों में लिखे गये ग्रन्थ द्रव्यश्रुत कहलाते हैं । अतएव द्रव्यश्रुत श्रुतज्ञान का अत्यधिक उपकारी है । उसे नमस्कार करते हुए सूत्रकार का कथन है-- ब्राह्मी लिपि को नमस्कार हो । यहाँ 'ब्राह्मी लिपि' ये दो शब्द विवेचन की अपेक्षा रखते हैं । लिपि विधान लेख को कहते हैं, वह जिनेन्द्र भगवान् ने दाहिने हाथ से ब्राह्मी को सिखाया था । इसी कारण उस लिपि का नाम ब्राह्मी पड़ा । अभिधान राजेन्द्रकोश में एक महत्त्वपूर्ण श्लोक उद्धृत किया गया है। उसमें देश, शास्त्र और गुरु की परिचायिका ब्राह्मी लिपि और ब्रह्म रूप प्रतिमा को एक ही बताया है । दोनों में कोई अन्तर नहीं है । दोनों पूज्य हैं । वह श्लोक है "लुप्तं मोहविषेण किं किमुहतं मिथ्यात्वदम्भोलिना, मनं किं कुनयाव किमु मनोलीनं नु दोषाकरे । प्रज्ञप्तौ प्रथमं नतां लिपिमपि ब्राह्मीमनालोकयन्, वन्द्यात्प्रतिमा न साधुभिरिति ब्रूते यदुन्मादवान् ॥ २ अर्थ:-श्री अर्हन्तदेव की प्रतिमा का वन्दन साधुओं को नहीं करना चाहिए, ऐसी असत् दुरुक्ति कहने वाले को सम्बोधन करते हुए कहा गया है कि क्या तुम्हारा मन मोहविष पीकर काल-कवलित हो गया है ? क्या मिथ्यात्वरूपी बज्र ने उस पर आघात किया है ? क्या कुनीति के गहन गर्त में गिर गया है ? क्या उसे दोषसमूह ने आत्मसात् कर लिया है ? अन्यथा 'णमो बंभीए लिविए' कहते हुए आचार्यों ने देव शास्त्र आदि की परिचायिका वर्णमयी लिपि तक को नमस्कार किया है, वह स्वयं ब्रह्मरूप अर्हत्प्रतिभा को अवन्दनीय कहने वाले तुम उन्मत्त तो नहीं हो ? अर्थात् तुम्हारा वैसा कथन उन्मत्त प्रलाप मात्र है । ब्राह्मी ने अपना समूचा जीवन वर्णमयी लिपि की साधना में लगाया । अन्त में वह अपने पिता (ऋषभदेव), जो प्रव्रजित होकर तीर्थंकर बने, से दीक्षा लेकर Jain Education International १. भगवतीसूत्र, संस्कृत व्याख्या, भ० १, श० १, उ० २. अभिधानराजेन्द्रकोश, पंचम भाग, पृष्ठ १२०६. For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003641
Book TitleBrahmi Vishwa ki Mool Lipi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsagar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1975
Total Pages156
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy