SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 74
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ __ ऐसा कहकर उन्होंने पुनः पुनः आशीर्वचन के साथ, स्वर्णपट्ट पर, अपने चित्त में स्थित श्रुतदेवता का पूजन कर स्थापित किया, फिर दोनों हाथों से अ, आ, आदि वर्णमाला लिखकर उन्हें लिपि लिखने का उपदेश दिया और अनुक्रम से इकाई, दहाई आदि अंकों के द्वारा उन्हें संख्या का ज्ञान भी कराया। "इत्युक्त्वा मुहुराशास्य विस्तीर्णं हेमपट्टके । अधिवास्य स्वचित्तस्थां श्रुतदेवीं सपर्यया ॥१०३॥ विभुःकरद्वयेनाम्यां लिखन्नक्षरमालिकाम् । उपादिशलिपि संख्या संस्थानं चाकैरनुक्रमात् ॥१०४॥"१ तीर्थंकर देव ने दोनों हाथों में से दाहिने हाथ से लिपि ज्ञान और बायें हाथ से अंकज्ञान करवाया। यही कारण है कि लिपि बायें से दायीं ओर और अंक दायें से बायीं ओर चलते हैं। भगवान् के मुख से जो अक्षरावली निकली, उसमें 'सिद्धं. नमः' मंगलाचरण है और व्यञ्जन पदों में अ, आ, इ, ई आदि मात्राएँ मिली हुई हैं। उसमें अकार से लेकर हकार पर्यन्त शुद्ध भुक्तावली के समान वर्ण हैं। इन वर्गों के दो भेद हैं-स्वर और व्यञ्जन । ये असे ह पर्यन्त ६४ अयोगवाह हैं। इसमें अनेक बीजाक्षरों से व्याप्त संयुक्ताक्षर हैं। इस अक्षर विद्या को बुद्धिमती ब्राह्मी ने और इकाई -दहाई रूक अंक विद्या को सुन्दरी ने धारण किया। वाङमय के बिना, न तो कोई शास्त्र है, न कोई कला है, इसीलिए तीर्थंकर ने सब से पहले उन पुत्रियों के लिए वाङमय का उपदेश दिया। "ततो भगवतो वक्त्रानिःसृतामक्षरावलीम् । 'सिद्धं नम' इति व्यक्तमङ्गलां सिद्धमातृकाम् ॥१०५॥ अकारादिहकारान्तां शुद्धां मुक्तावलीमिव । स्वर व्यञ्जन भेदेन द्विधा भेदमुपेयुषीम् ॥१०६॥ अयोगवाहपर्यन्तां सर्वविद्यासु सन्तताम् । संयोगाक्षरसम्भूति नैकबीजाक्षरश्चिताम् ॥१०७॥ समवादीधरद् ब्राह्मी मेधाविन्यति सुन्दरी । सुन्दरी गणितं स्थानक्रमः सम्यगधारयत् ॥१०८॥ न बिना वाङगमयात किञ्चिदस्ति शास्त्रंकलापि वा। ततोवाङ्गमयमेवादौ वेधास्ताभ्यामुपादिशत् ॥१०९॥"२ ब्राह्मी और सुन्दरी को समस्त विद्याएँ पदज्ञानरूपी दीपिका से प्रकाशित हुईं और अपने आप ही स्वाभाविक सहज रूप से परिपक्व अवस्था को प्राप्त १. वही, १६/१०३-१०४. २. भगवज्जिनसेनाचार्य, महापुराण, भाग १, १६/१०५-३. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003641
Book TitleBrahmi Vishwa ki Mool Lipi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsagar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1975
Total Pages156
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy