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पर कर्धनी का मृदु शब्द हो रहा था, उनके नेत्र खंजनपक्षी के समान थे और उनके अंगों से स्वर्णरेणु के समान कांति विकीर्ण होती थी । उन दोनों के विनय-शील आदि गुण को देखकर जगद्गुरु भगवान् ऋषभदेव ने विचार किया कि यह समय
विद्याग्रहण का है, अतः उन्होंने दोनों को सिद्धमातृका सिखाने के साथसाथ गणित, कोश, पद-विद्या, छन्द - अलंकार शास्त्र पढ़ाये । पुरुदेव चप्पू में लिखा है-
“तदनुतयोविनयशीलादिकं
विलोक्य जगद्गुरुविद्या-स्वीकरणकालोऽयं इति मत्वा ब्राह्मी-सुन्दरीभ्यां सिद्धमातृकोपदेश पुरःसरं गणितं स्वयंभुवाधानानि पदविद्याछन्दो विचित्यलंकार शास्त्राणि च । " २
इस सन्दर्भ में भगवज्जिनसेनाचार्य का महापुराण दृष्टव्य है। उसके सोलहवें पर्व में ब्राह्मी-सुन्दरी और उनके विद्यारम्भ का विशद विवेचन हैं । वे दोनों सौंदर्य और शील की तो मानों मूत्तिमती प्रतिमाएँ थीं । उन्हें देखकर सोचना होता था कि वे नागकन्याएँ हैं अथवा दिक्कन्याएँ, वे सौभाग्य देवियाँ हैं अथवा लक्ष्मी सरस्वती की अधिष्ठातृ देवियाँ अथवा उनका अवतार ही । उनकी आकृति नाना कल्याणोद्भवा है । दर्शक को विस्मयकारिणी आनन्दानुभूति होती है । एक दिन दोनों ने भगवान् के समीप जाकर विनय-पूर्वक प्रणाम किया। दोनों को प्रणत और नतमस्तक देख प्रभु ने प्रीति से उन्हें अंक में बिठाया और उनका सिर सूंघते हुए बोले -- तुम दोनों की यह अवस्था और अनुपम शील यदि विद्या से विभूषित किया जाय तो सफल हो जायेगा । अतः हे पुत्रियो ! तुम विद्याग्रहण करने में प्रयत्न करो, यही काल है-
" प्रणते ते समुत्थाप्य दूरान्नमितमस्तके | प्रीत्या स्वमङ्कमारोप्य स्पृष्ट्वाघ्राय च मस्तके ॥ ९४ ॥ इदं वपुर्वयश्चेदम् इदं शीलमनीदृशम् । विद्यया चेद्विभूषयेत् सफलं जन्म युवामिदम् ॥९७॥ तद्विद्या ग्रहणे यत्नं पुत्रिके कुरुत युवाम् । तत्संग्रहणकालोऽयं युवयोर्वर्ततेऽधुना ॥ १०२ ॥ " ४
१. “उद्भिन्नस्तनकुड् मले मृदुरणत्कांचीकलापांचिते । सिजन्मंज्लनपुरेद्धचरणन्यासे चकोरेक्षणे । कांतिकांचनरेणुराजिसदृशीमंग: किरत्यौ पुरो ।
ब्राह्मी संसदि सुन्दरी च त इमे प्राप्ते समीपं गुरोः ।। " अर्हदास, पुरुदेवचम्पू, ७/१
२. वही, ७, पृ० १४२.
३. भगवज्जिनसेनाचार्य, महापुराण भाग १, १६ / ६० - १२ ४. भगवज्जिनसेनाचार्य, महापुराण, १६ / २४ -१०२.
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