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________________ से इस परिणाम पर पहुँचे होंगे, किन्तु उसकी सम्पुष्टि उन्होंने नहीं की । ऋषभदेव जैनों के आदि तीर्थंकर थे । उनका उल्लेख ऋग्वेद से लेकर श्रीमद् भागवत् तक अविच्छिन्न रूप से अजैन ग्रंथों में भी मिलता है । मैंने उनका विस्तृत विवेचन अपने ग्रन्थ 'भरत और भारत' में किया है। यह सत्य है कि उनका जब जन्म हुआ, भोगभूमि समाप्त हो चुकी थी - कल्पवृक्षों का युग बीत गया था । वह कर्मभूमि का प्रारम्भ था । धरा और धरावासियों की नई समस्याएँ थीं, नये हल चाहिए थे । ऋषभदेव ने निष्ठा, प्रतिभा और श्रम-पूर्वक उनका समाधान किया। उन्होंने असि, मषि, कृषि, विद्या, वाणिज्य और शिल्प इन षड्विध पायों का उपदेश देकर प्रजा की समृद्धि का मार्ग दिखाया। वे प्रजापति कहलाये । दूसरी ओर उन्होंने आध्यात्मिक साधनों को भी पूर्णता दी ।' अपने कर्मफल को अपने समाधितेज से भस्म कर दिया । २ कर्म - मल के हट जाने से वे विशुद्ध आत्मब्रह्मरूप हो गये । उन्होंने एक ओर लोक को सफल बनाने का मार्ग प्रशस्त किया, तो दूसरी ओर आत्म-साधना का भी रास्ता दिखाया और दोनों की समन्वयात्मक पूर्णता को जीवन का लक्ष्य बनाया | 3 ६१ ऋषभदेव ने जहाँ एक ओर कृषि करना सिखाया, व्यापार का ढंग बताया, नाना शिल्पों में दीक्षित किया और शस्त्र विद्या का ज्ञान कराया, वहाँ लिपि और अंक की प्रारम्भिक शिक्षा भी उन्होंने दी । ऋषभदेव की प्रथम महाराज्ञी नन्दा से ज्येष्ठ पुत्र भरत और पुत्री ब्राह्मी का युगल रूप में जन्म हुआ था। इसी भाँति उनकी दूसरी रानी सुनन्दा से बाहुबली और सुन्दरी युगल रूप में जन्मे थे । * इनके अतिरिक्त सुनन्दा से उनके छ्यानवे पुत्र और हुए । ६ सभी चरम शरीरी थे । भगवान् ने अतिशय बुद्धि से सम्पन्न अपने समस्त पुत्रों के साथ-साथ दोनों पुत्रियों-ब्राह्मी और सुन्दरी को भी अक्षर, चित्र, संगीत और गणित का ज्ञान कराया था। जिनसेन ने 'हरिवंश पुराण' में लिखा है- "अक्षरालेख्यगन्धर्व गणितादिकलार्णवम् । सुमेधानः कुमारीभ्यामवगाहयति स्म ।।७ एक दिन राज सभा में ब्राह्मी और सुन्दरी दोनों पुत्रियां अपने पिता आदिनाथ के समीप आईं। उन पुत्रियों के वक्षस्थल पर रत्नमाला पड़ी हुई थी, कमर १. स्वयम्भू स्तोत्र - १/३. २. वही - - १/४. ३. भरत और भारत, पृष्ठ ३१. ४. जिनसेन, हरिवंशपुराण, ६/२१. ५. वही, ६ / २२. ६. वही, ६ / २३. ७. वही, ६ / २४. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003641
Book TitleBrahmi Vishwa ki Mool Lipi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsagar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1975
Total Pages156
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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