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________________ ६० हैं और जिनमें ब्राह्मी लिपि का व्यवहार होता है । आचार्य हेमचन्द्र ने कल्पसूत्र में लिखा है -- पोराणं अद्धमागहभासा निययं हवइ सुत्तं १ अर्थात् जैन धर्म 1 प्राचीन सूत्र अर्द्धमागधी भाषा में निबद्ध होते थे । यह निबन्धन ब्राह्मी लिपि में होता था । यायावर जैन साधु देश-देश में विहार करते थे, वहाँ की प्रचलित जनभाषा में बोलते और वहाँ की भाषा में ही ग्रन्थ- निर्माण करते थे । वह जनभाषा प्राकृत थी । प्राकृत एक रूप होते हुए भी देश-भेद से भिन्न रूप भी थी । नमि साधु ने काव्यालंकार - टीका में लिखा है -- "मेघ निर्मुक्तं जलमिवैकस्वरूपं तदेव च देशविशेषात् संस्कारकरणाच्च समासादित विशेषंसत् संस्कृताद्युत्तरविभेदान् आप्नोति ।"२ ऐसा ही एक वाक्य 'भारतीय विद्यानिबन्ध संग्रह' में, 'सरस्वती' कंठाभरण' से संकलित है - " सा पुनर्जलपरम्परेवैक रूपापि तत्तद्देशादि विशेषात् संस्कारकरणाच्च भेदान्तरान् आप्नोति । 3 इसका अर्थ है कि मेघों से छोड़ी जाने वाली जल परम्परा एक रूप होते हुए भी देश विशेष से भिन्नत्व को प्राप्त होती है, उनमें एक संस्कृत भी है । उनके अनुसार, “प्राकृतमादौ निर्दिष्टं तदनुसंस्कृतादीनि पाणिन्याव्याकरणोदित शब्दलक्षणेन संस्करणात् संस्कृतमुच्यते ।" अर्थात् आदि में संस्कृत थी, फिर संस्कृतादिक आईं, पाणिनीय व्याकरण के अनुसार प्रचलित भाषा का संस्कार करने से जो भाषा बनी, वह संस्कृत कहलाई । संस्कार के बाद संयुक्ताक्षर की संख्या बढ़ गई, जो पहले कम थी । जहाँ तक ब्रह्मदेश के आधार पर ब्राह्मी लिपि के नामकरण का सम्बन्ध है, वह केवल कल्पना-जन्य और आनुमानिक है । वह देश कहाँ था ? उसकी संस्कृति एवं सभ्यता कैसी थी ? उसकी भाषा कौन-सी थी ? आदि प्रश्न अधूरे हैं । कोई प्रामाणिक हल नहीं है । केवल ब्रह्म नाम होने मात्र से, उसे ब्राह्मी का मूलाधार मान लिया जाये, उचित नहीं है । ब्राह्मी के नामकरण सम्बन्धी ठोस आधार जैन ग्रंथों में उपलब्ध होते हैं। आज तक उन पर भाषा विज्ञानवेत्ताओं की दृष्टि नहीं गई है । उनके कतिपय उद्धरण मैं यहाँ प्रस्तुत करना चाहूँगा । हिन्दी विश्वकोष के प्रथम भाग में श्री नगेन्द्रनाथ बसु ने लिखा था, , "ऋषभदेव ने ही सम्भवतः लिपिविद्या के लिए कौशल का उद्भावन किया । ऋषभदेव ने ही सम्भवतः ब्रह्मविद्या की शिक्षा के लिए उपयोगी ब्राह्मी लिपि का प्रचार किया था ।" " यद्यपि श्री वसु महोदय अवश्य ही जैन ग्रंथों के अध्ययन १. कल्पसूत्र - ४ / २८७, मिलाइए - अववाइअसुत्त, पारा - ५६. २. नमिसाधुकृत काव्यालंकारटीका, २/१२. ३. देखिए सरस्वतीकंठाभरण, आजडकृत व्याख्या, भारतीयविद्यानिबंधसंग्रह, पृष्ठ २३२. ४. नमिसाधुकृत काव्यालंकार टीका, २/१२. ५. नगेन्द्रनाथवसु सम्पादित, हिन्दी विश्वकोश, प्रथम भाग, पृष्ठ ६४. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003641
Book TitleBrahmi Vishwa ki Mool Lipi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsagar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1975
Total Pages156
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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