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________________ विद्यमान थी । वैदिक भाषा को स्वयं उस काल में प्रचलित प्राकृत बोलियों का साहित्यिक रूप माना जा सकता है ।" 9 इस संदर्भ में प्राकृत महाकाव्य वो का कथन उल्लेखनीय है ५९ "सयलाओ इमं वाया विसंति एत्तो य गति वायावो एंति समुद्धं चिय ति सायरोओच्चिय चलाई ॥ २ इसका अर्थ है कि जिस प्रकार जल समुद्र में प्रवेश करता है और वाष्प बनकर पुनः समुद्र से बाहर जाता है, उसी प्रकार प्राकृत से सब भाषाओं का उद्गम होता है और उसी में सब भाषाएँ पुनः समाहित हो जाती हैं । प्राकृत का यह व्यापक अर्थ है । भाषा का यही स्वच्छन्द रूप स्थानगत और काल विभिन्नताओं के कारण ५०० ई. पूर्व से १००० ई. तक प्राकृत और अपभ्रंश भाषाओं के रूप में विकसित हुआ । उस काल में प्राकृत लोकप्रिय भाषा बन गई थी, जैसा कि राजशेखर ने स्पष्ट किया है - " प्राकृत भाषा स्त्री के समान सुकुमार और संस्कृत भाषा पुरुष के समान कठोर है । वैय्याकरणों ने सम्भवतः संकुचित अर्थ में साहित्यिक प्राकृत का मूल आधार संस्कृत को माना है । यद्यपि यहाँ संस्कृत का आशय प्राचीन आर्यभाषा के स्वच्छन्द रूप में विकसित वैदिक संस्कृत से लेना युक्तिसंगत होगा, क्योंकि संस्कृत तो स्वयं ही लोकभाषा का संस्कार किया हुआ रूप था । "3 तो ब्राह्मी लिपि सम्बन्धित थी इस लोकभाषा प्राकृत से और ब्राह्मण सम्बन्धित था संस्कृत से, अतः ब्राह्मण के आधार पर ब्राह्मी नाम पड़ा, असंगत है । संयुक्ताक्षर संस्कृत में ही नहीं, प्राकृत में भी थे । भाषा और व्याकरण की जानकारी ब्राह्मण को ही नहीं, श्रमण को भी थी । यहाँ तक कि आर्य वे ही कहलाते थे जो प्राकृत बोलते और लिपि के रूप में ब्राह्मी का व्यवहार करते थे । एक जैन ग्रन्थ पण्णवणासुत्त में लिखा है "से किं तं भासारिया । भासारिया जे णं अद्धमागहाये भासाए भाति । जत्थ वि य णं बंभी लिवि पवत्तइ ।" ४ अर्थ - भासारिया (भाषा के अनुसार आर्य ) कौन कहे जाते हैं ? भाषा के अनुसार आर्य लोग वे हैं, जो अर्धमागधी भाषा में वार्तालाप करते हैं, लिखते-पढ़ते १. 'हिन्दी साहित्यकोष', प्रधान सम्पादक डा० धीरेन्द्र वर्मा, पृष्ठ ४६२. २. वाक्पतिराज, गउडबहो, श्लोक ६३ वाँ, डा. अग्रवाल के 'प्राकृत विमर्श' में उद्धृत, पृष्ठ ४. ३. " परसा सक्कअबंधा पाउअप्रबंधो वि होइ सुउमारो । पुरुसमहिलाएँ जेत्तिअ मिहंतरं तेत्तिअ मिमाणं ।। " कर्पूरमञ्जरी, १.८. ४. पण्णवणासुत्त - ५६. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003641
Book TitleBrahmi Vishwa ki Mool Lipi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsagar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1975
Total Pages156
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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