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________________ नहीं कि ब्राह्मी के प्राचीनतम उपलब्ध रूप विद्वान् ब्राह्मणों के द्वारा निर्मित हुए।" डॉ० उदयनारायण तिवारी ने भी इस कथन का समर्थन करते हुए लिखा है, "ब्राह्मी लिपि के स्वरों और व्यञ्जनों की पर्याप्त संख्या एवं उच्चारण, स्थान के अनसार उसका विभिन्न वर्गों में वर्गीकरण यह स्पष्ट रूप से प्रमाणित करता है कि इसके निर्माण में भाषा शास्त्र तथा व्याकरण में निष्णात ब्राह्मणों का हाथ था।"२ एक पाँचवां मत और है जो ब्रह्मदेश में उत्पन्न होने के कारण इसे ब्राह्मी मानता है । ब्रह्म और आचार्य से ब्राह्मीलिपि का उद्भावन एक भावना-मात्र है। जब ब्रह्म समस्त जगत का निर्माता है, तो लिपि का भी होगा ही। यह कोई शोधखोज की बात नहीं है, एक धर्मनिष्ठ संचेतन है। वेद और ब्राह्मण एक ही सूत्र है। यह भी तो हो सकता है कि ब्राह्मी के आधार पर वेद को ब्रह्म और मनुष्य जाति के एक वर्ग को ब्राह्मण कहा गया। जहाँ तक ब्रह्म विद्या (आत्मविद्या) का सम्बन्ध है, वह ब्राह्मणों से पूर्व क्षत्रियों में थी। यह ब्रह्मविद्या क्षत्रियों से ब्राह्मणों को प्राप्त हुई , इसे सभी बड़े-बड़े विद्वान मानते हैं। इसी भाँति ब्राह्मण और संस्कृत को घनिष्ठ माना जा सकता है, ब्राह्मण और प्राकृत को नहीं। ब्राह्मी लिपि के प्राचीनतम उद्धरण प्राकृत में मिलते हैं, संस्कृत में नहीं। संस्कृत से भी पूर्व प्राकृत मौजूद थी। डॉ. धीरेन्द्र वर्मा के प्रधान सम्पादकत्त्व में प्रकाशित 'हिन्दी साहित्य कोष' में लिखा है, "प्राकृत भाषा कोई एकाएक प्रयोग में नहीं आ गई। अपने नैसर्गिक रूप में वह वैदिक काल से पूर्व भी १. George Buhler, Indische Palaeography, हिन्दी अनुवाद-भारतीय पुरालिपिशास्त्र, पृष्ठ ३४. २. डॉ० उदयनारायण तिवारी, हिन्दी भाषा : उद्गम और विकास, पृष्ठ ५८०, मिलाइए-भारत में लिपि विकास, हिन्दी भाषा का उद्भव और विकास , गुणानन्द जुयाल, पृ० १८४. ३. यथेयं न प्राक्त्वत्तः पुराविद्या ब्राह्मणान् गच्छति । तस्मात्तु सर्वेषु लोकेष क्षत्रस्यैव प्रशासनमभूत् ॥ छान्दोग्य० ५/३/७. "तत्रास्ति वक्तव्यम्--यथा येन प्रकारेण इयं विद्या प्राक्त्वत्तो ब्राह्मणान् न गच्छति न गतवती, न च ब्राह्मणा अनया विद्यया अनुशासितवन्त तथा एतत् प्रसिद्धं लोके यतः । तस्माद् पुरा पूर्व सर्वेषु लोकेष क्षत्रस्यैव क्षत्रजातेरेव अनया विद्यया प्रशासनं प्रशास्तृत्वं शिष्याणामभूत् बभव । क्षत्रियपरम्परयैवेयं विद्या एतावन्तं कालमागता । तथाप्येतां अहं तुभ्यं वक्ष्यामि । त्वत्सम्प्रदानादूर्ध्वं ब्राह्मणान् गमिष्यति । अतो मया यदुक्त्तं तत्क्षन्तुमर्हसीत्युक्त्वा तस्मै हि उवाच विद्यां राजा।" छान्दोग्य० ५/३/७ का शांकरभाष्य. और "अथेदं विवेत. एवं न कस्मिश्चन ब्राह्मण उवासताम् ।" बृहदारण्यक ६/२८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003641
Book TitleBrahmi Vishwa ki Mool Lipi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsagar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1975
Total Pages156
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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