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________________ वपु निरञ्जन था—सभी प्रकार के मैल और कलुष से रहित ।' ब्रह्म होने के कारण ही उनकी बड़ी पुत्री ब्राह्मी कहलाई। ऋषभदेव ने उसे ब्रह्म विद्या सिखाई । वह विदुषी ही नहीं बनी अपितु अपनी साधना से जन-जन के मध्य पूजापद की अधिकारिणी भी हुई। चम्बाघाटी में ब्राह्मी देवी का मंदिर आज भी इसका प्रमाण है । यही कारण है कि आगे की जैन परम्परा में पुत्रियों का नाम ब्राह्मी रख कर धार्मिक भावना ही नहीं, गौरव का भी अनुभव किया जाने लगा । कोषकारों, वैय्याकरणों और साहित्यिकों ने विद्या अर्थ में जितने शब्द चुने, उनमें ब्राह्मी को प्रमुखता मिली। ब्राह्मी शब्द का अनेक अर्थों में प्रयोग हुआ, किन्तु सबसे अधिक लिप्यर्थ में। अशोककालीन अधिकांश शिलालेख ब्राह्मी लिपि में उत्कीर्ण हुए। उनके पूर्व के शिलालेखों की भी लिपि ब्राह्मी ही थी। उसकी सार्वभौमिकता और लोकप्रियता देख कर ही प्राचीन ग्रन्थकारों ने स्थान-स्थान पर उसको नमस्कार किया है । भगवती सूत्र का ‘णमो बंभीए लिवीए' इसका प्रमाण है। ब्राह्मी लिपि का नामकरण ___ इस लिपि के ब्राह्मी नाम पड़ने के सन्दर्भ में कई मत अभिव्यक्त किये गये हैं। उनमें पहला है कि विश्व की अन्य वस्तुओं की भाँति ब्रह्मा या ब्रह्म ही इसके भी निर्माता हैं और इसी आधार पर इसका नाम ब्राह्मी पड़ा। दूसरा मत चीनी विश्वकोष फ़ा-वान-शु-लिन (६६८ ई.) पर आधृत है । इसके अनुसार ब्राह्मी लिपि के निर्माता कोई ब्रह्मा नाम के आचार्य थे, उनके नाम से ही इसे ब्राह्मी कहा गया। 3 इन दोनों मतों में कोई मौलिक भेद नहीं है । एक में लिपि का उद्भावक ब्रह्मा स्वयं है-वह ब्रह्मा जिसे जगत्पिता कहते हैं और दूसरे में एक आचार्य, जिसमें नियंता की क्षमता होती है। तीसरा मत डॉ० राजबली पाण्डेय ने अभिव्यक्त किया है। उनके अनुसार वेद (ज्ञान) की रक्षा के लिए आर्यों ने इसका आविष्कार किया। वेद का दूसरा नाम ब्रह्म है। इसी आधार पर उसे ब्राह्मी संज्ञा प्राप्त हुई। कुछ विद्वान ब्राह्मण से ब्राह्मी का सम्बन्ध जोड़ते हैं। डा० व्हूलर का कथन है---"इसमें संदेह १. आचार्य समन्तभद्र, स्वयम्भू स्तोत्र, १/३-४. २. सेक्रेड बुक्स ऑव ईस्ट-नारद स्मृति, २३.५८ और मनु पर बृहस्पति का वात्तिक, २३.३०४. ३. देखिए चीनी विश्वकोष फा-वान-शुलिन. फ्रेंच विद्वान कुपेरी चीनी लिपि से ब्राह्मी की उत्पत्ति मानते हैं। 4. Indian Palaeography by Dr. R. B. Pandey, Page 35. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003641
Book TitleBrahmi Vishwa ki Mool Lipi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsagar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1975
Total Pages156
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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