SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 60
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४९ वह गलत था । उस समय के लिखे ग्रंथ तो अब नहीं मिलते, वे भारतीय जलवायु के कारण नष्ट हो गये होंगे, स्वाभाविक है । कागज़ पर लिखने की बात काशगर (मध्य एशिया) से प्राप्त एक भारतीय ग्रंथ से भी होती है । यह पाँचवीं शताब्दी में, गुप्ता पीरियड में, गुप्ता लिपि में लिखा गया था । राजा भोज ( ११वीं शती) के भोजप्रबन्ध से भी सिद्ध है कि कागज लेखन के काम आता था। आज वे ग्रंथ यहाँ भले ही न मिलें, किन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि उस समय कागज़ का प्रचलन नहीं था । 'एलबरूनीज़ इण्डिया' में लिखा मिलता है कि बौद्ध और जैन ग्रंथ प्राय: भोजपत्र पर लिखे गये। आज भी जैन ग्रन्थ-भण्डारों में भोजपत्रों पर लिखे अनेक प्रसिद्ध जैन ग्रंथ मिलते हैं । अतः कालिदास के 'कुमारसम्भव में यह कथन कि भोजपत्र पर केवल प्रेमपत्र ही लिखकर भेजे जाते थे, उचित नहीं है । अमरकोष में- जो कि एक जैन ग्रंथ था और जिसके रचयिता अमर नाम के जैन साधु थे - भोजपत्र का उल्लेख आया है । उसमें लिखा है, "भर्जेचूर्मिमृदुत्व चौ ।" भोजपत्र हिमालय के उत्तुंग प्रदेश में उत्पन्न होता था । पहले इसका प्रचलन उत्तर पश्चिमी भाग तक सीमित था, फिर और भागों में भी फैल गया। सिकन्दर के आक्रमण के समय उसका प्रचार था । ७ श्री गौरीशंकर हीराचन्द ओझा का कथन है कि भोजपत्र पर खरोष्ठी लिपि में लिखा सब से प्राचीन ग्रंथ 'धम्मपाद' प्राप्त हुआ है। भोजपत्र पर लिखा इससे अधिक प्राचीन ग्रंथ और नहीं मिला। इसकी रचना ईसा से दो या तीन शताब्दी पूर्व हुई थी। जैन लेखक अपने ग्रन्थों में रंगीन स्याही का प्रयोग करने में निपुण थे । उन्होंने प्रायः ग्रंथों के अन्त में पीली और हरी स्याही से लिखा है । बीच-बीच में सुनहली स्याही से लिखने का उनका स्वभाव-सा था । प्रारम्भिक पंक्तियाँ प्रायः लाल स्याही से लिखी मिलती हैं । 'कथा सरित्सागर' के रचयिता सोमदेव ० १. व्हूलर, पुरालिपिशास्त्र, पृ. १६६. 2. Rajendralal Mitra, gough's papers. 16. 3. Alberuni, India ( Sachau ) I. 171. ४. न्यस्ताक्षरा धातुरसेन यत्त्र, भूर्जत्वचः कुञ्जरविन्दुशोणाः । ब्रजन्ति विद्याधरसुन्दरीणामनङ्ग लेख क्रिययोपयोगम् ॥ Jain Education International ५. अमरकोष, २ / ४/४६. 6. Gough's papers, 17. ७. इण्डियन पेलियोग्राफी, डा. पाण्डेय, पृ. ६७. ८. ओझा, प्राचीनलिपिमाला, पृ. १४४. 9. Rajendralal Mitra, Notices of sanskrit M. S. S. 3, PLI. १०. ओझा, प्राचीनलिपिमाला, पृ. १५६. कुमारसम्भव १/७. For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003641
Book TitleBrahmi Vishwa ki Mool Lipi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsagar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1975
Total Pages156
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy