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________________ ०८ फैला। बौद्ध ग्रन्थ त्रिपिटक इसी पर लिखे गये थे।' दिगम्बर जैन धर्म के प्राचीन ग्रंथ जयधवल और महाधवल भी ताड़पत्रों पर लिखे गये थे। ___सूती और रेशमी कपड़ों पर भी ग्रन्थ लिखे जाते थे । व्हलर को जैसलमेर के 'बृहज्ज्ञानकोष' में रेशम की एक पट्टी पर लिखी जैन सूत्रों की सूची प्राप्त हुई थी। इस पर रोशनाई से लिखा गया था। पीटरसन को अणहिलवाद पाटण में कपड़े पर लिखा एक जैन ग्रंथ धर्मविधि, जिसके रचयिता श्रीप्रभसूरि थे, प्राप्त हुआ था। इस ग्रंथ में ९३ पृष्ट हैं और उनकी चौड़ाई लगभग १३ इंच है। ऐसे ग्रंथों के संदर्भ में डॉ. राजबली पाण्डेय का कथन है, "At Present in Jain Temples a number of papers are found, containing Mandalas and figures made at the time of the concecration of temples" कभी शिलालेखों पर भी ब्राह्मीलिपि में ग्रंथ लिखने का रिवाज था । जैन आचार्यों ने उसे सिद्धान्त के रूप में स्वीकार किया है। उनका कथन है-- "शुभे शिलासै उत्कीर्य श्रुतस्कन्धमपि न्यसेत् । ब्राह्मीन्यासविधानेन श्रुतस्कन्धमिह स्तुयात ॥ सुलेखकेन संलिख्य परमागमपुस्तकम् । ब्राह्मीं वाश्रुतपञ्त्तम्यां सुलग्ने वा प्रतिष्ठयेत् ॥"५ अर्थ--शभ महूर्त में शिलादि में उत्कीर्ण करके श्रतस्कन्ध की भी स्थापना करे, फिर ब्राह्मी के न्यास विधान से उसकी स्तुति करे। सुलेख-पूर्वक परमागम पूस्तक अथवा बाह्मी लिखकर श्रतपंचमी के शभ महर्त में उसकी स्थापना करनी चाहिये। जैन समाज में आज भी श्रतपंचमी के दिन बालक को पाँच वर्ष की आयु में अक्षराभ्यास का महर्त कराये जाने की प्रथा है। यह प्रथा तीर्थकर वृषभदेव से प्रारम्भ हुई और सतत चल रही है। ___ आज अनेक जैन ग्रन्थ कागजों पर लिखे मिलते हैं, किन्तु वे अधिक प्राचीन नहीं हैं। भारत की जलवायु में कागज़ कालान्तर तक नहीं चल पाता, किन्तु इसका यह अर्थ नहीं है कि सिकन्दर के साथ आये निय रकस (327 B. C.)-- एक ग्रीक लेखक ने यहाँ जो रुई से तैयार कगज़ पर लोगों को लिखते देखा, १. भारतीय पुरालिपिशास्त्र, पृ. १६३. २. देखिए वही, पृ. १९१ . ३. इसका लेखन-काल १३६१-६२ ई. सन् माना गया है। देखिए-इण्डियन पेलियोग्राफी, डा. राजबली पाण्डेय, पृ. ७२-७३. ४. वही, पृ. ७३. ५. पं. आशाधर, प्रतिष्ठापाठ, ६।३३-३४. 6. Starbo, xv, 717. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003641
Book TitleBrahmi Vishwa ki Mool Lipi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsagar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1975
Total Pages156
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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