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रहते ही हैं, यह नियम है। आज भी अधिकांश जैन यंत्र 'रजत पत्रों पर ही लिखे जाते हैं। उन्हीं को शुभ माना जाता है ।
स्वर्णपट्ट के बाद ताम्रपत्र अथवा ताम्रशासन का अधिक प्रयोग होता था । प्राचीन जैन ताम्रपत्रों से स्पष्ट है कि अधिकांश रूप से उन पर दान घोषणाएँ होती थीं । प्रारम्भ में दान देने वाले की प्रशस्ति, फिर दान की मिकदार - ग्राम, स्वर्ण और रजत और तत्पश्चात् दान ग्रहण करने वाले का नाम और परिचय आदि रहता था । वजीरखेड ( नासिक - महाराष्ट्र) में प्राप्त तीन ताम्रपत्रों में लिखा है कि- राज्याभिषेक के समय, स्वर्ण तुलादान के अवसर पर, इक्कीस लाख द्रम्म आय वाले ६५० गाँव दान दिये गये । इसी में जैन द्रविड़ संघ के वर्द्धमान गुरु को दो गाँव दिये जाने का भी उल्लेख है । ' कादलूर ( मांडया - मैसूर) में नौ ताम्रपत्र मिले हैं । इन पर प्रारम्भ में गंगवंश के राजाओं की वंशावली दी है, तत्पश्चात्, कोंगल देश में निर्मित जिन मंदिर के लिए सूरस्तगण के एलाचार्य को कादलूर ग्राम दान में दिये जाने की बात लिखी है । डॉ. वासुदेवसिंह ने अपने ग्रन्थ 'प्राचीन भारतीय अभिलेखों का अध्ययन' में प्रारम्भिक ईसवी सन् के अनेक ताम्रपत्रों को मूलरूप में प्रस्तुत किया है । सभी में धार्मिक कार्यों के लिए दान देने का उल्लेख है । * उन्होंने लिखा है कि दान तथा धार्मिक वृत्तान्त लिखने के लिए ताम्रपत्रों का प्रयोग होता था । वे तो अशोक- पूर्व युग के पिपरावा (उत्तर प्रदेश) के 'सोहारा ताम्रपत्र' से ईसवी - पूर्व पाँच सौ के लगभग लेखन कला के प्रचार को प्रमाणित करते हैं । जिनमंदिरों में तांबा और पीतल मिला कर बनाये गये प्लेट्स भी बहुत मिलते हैं, जिन पर धार्मिक सूत्र खुदे हुए हैं। सातवीं सदी ईसवी की पीतल की बनी लगभग सभी मूर्तियाँ जैन मूत्तियाँ हैं और उन पर खुदे मूर्तिलेख जैन लेख हैं ।
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उत्तरवर्ती काल में तीलियों से तालपत्र ( ताड़पत्र ) पर लिखने का कार्य प्रारम्भ हुआ, और वहाँ से ही 'लिख विलखने' प्रसिद्ध हुआ । भगवती सूत्र में लिखा है -- " तत्पश्चादुत्तरवर्तिनि युगे शंकुभिस्तालपत्रेषूत्कीर्य लेखनं प्रवृत्तमिति लेखन शब्दस्य ( लिख विलखने धातुः ) विलेखनार्थपरत्त्वात् विज्ञायते ।" " ताड़पत्र मूलरूप से दक्षिण में पैदा होता था । वहाँ से भारत के दूसरे देशों में
१. जैन शिलालेख संग्रह, भाग ५, जोहरापुर-सम्पादित, वाराणसी, पृ. १५.
२. वही, पृ. २१.
३. प्राचीन भारतीय अभिलेखों का अध्ययन, पू. ४६.
४. देखिए वही, पृ. २४०.
५. भगवती सूत्र, संस्कृत व्याख्या.
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