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आशीः वचन
इसका
ब्रह्म को लेकर नाना कथन और उपकथन चले । शोध-खोज के सतत प्रवाह में यह स्वाभाविक भी है; किन्तु ब्राह्मी भारतभूमि पर जन्मी, पली और बड़ी हुई, ऐसा निर्विवाद सत्य है । जैन अनुश्रुतियों में उसके अनेकानेक उदाहण सुरक्षित हैं। कर्मसृष्टि के प्रारम्भ में अन्तिम कुलकर नाभिराय के पुत्र ऋषभदेव ने अनेक विद्याएँ प्रजा, पुत्रों और अपनी पुत्रियों को दीं। इनके बिना भोगभूमि का कर्मभूमि में रूपान्तरण सही न हो पाता। वह सही हुआ, सफल हो सका, एकमात्र श्रेय प्रजापति की अनूठी प्रतिभा, श्रम और पौरुष को ही था । उन्होंने अपनी पुत्री ब्राह्मी को लिपि का ज्ञान दिया, ऐसा जैनधारा से प्रमाणित है । ब्राह्मी उसमें खो गई, दोनों का तादात्म्य अनूठा था । उससे ब्राह्मी, ब्राह्मी न रह कर लिप हो गई और लिपि 'लिप उपदेहे' छोड़ कर अलिपि हो उठी। तो, लिपि ब्राह्मी कहलायी और ब्राह्मी लिपि । दोनों के समायोजन की कथा इस भारतभूमि पर लिखी गयी । कोई विदेशी आज भले ही उसे अपना कहे ।
प्रजापति ऋषभदेव ने ब्राह्मी को अक्षरज्ञान दिया । वह स्थूल था किन्तु सूक्ष्म भी । वह भौतिक था किन्तु आध्यात्मिक भी। वह साकार था किन्तु निराकार भी । ब्राह्मी के अध्यात्म में डूबे सतत मन ने, दीर्घ तप और साधना ने दोनों को उजागर किया । शायद यही कारण है कि 'आत्मानुशासन' के रचयिता ने अक्षर समाम्नाय का चरम प्रयोजन परमात्म-प्राप्ति माना । और शायद यही कारण है। कि 'कल्याण मंदिर' का स्तोता 'किं वाक्षरप्रकृतिरप्यलिपिस्त्वमीश !' कह सका । योगवासिष्ठ का ऋषि 'लिपिकर्मार्पिताकारा' होकर ही ध्यानासक्त मन से परमात्मा को पा सका । पं. आशाधर ने 'आध्यात्म रहस्य' में शब्द और अर्थ के ग्रहण को उपयोग कहा । उनकी दृष्टि में शब्द-गत उपयोग 'दर्शन' और अर्थगत उपयोग 'ज्ञान' कहलाता है । और पुरुष - आत्मा दर्शन - ज्ञान रूप है। तो, अभारतीय विद्वान ब्राह्मी लिपि को जिस कैमरे से खींचते रहे, वह केवल स्थूल उपकरणों से बना था । उसके सुक्ष्म अध्यात्मालोक को उतार पाने में वह नितांत असमर्थ रहा ।
जैन श्रुत में अक्षर, वर्ण, शब्द, पद और वाक्यों का विशद विवेचन मिलता है। विशद का अर्थ है कि उनके सभी पहलुओं को भली-भांति जांचा-परखा गया है । उससे लिपि के बाह्यांगों का पूर्ण व्यक्तीकरण हुआ है तो प्रयोजन-गत सूक्ष्म भाव भी गोपनीय नहीं रह सके हैं। इसी आधार पर जैनाचार्यों ने लिपि को द्रव्य लिपि
(अ)
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