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________________ और भाव लिपि के रूप में दो भागों में बांटा है। वर्णमाला के आदि अक्षर 'अ' की महिमा से ऐसा स्पष्ट है। लिखा मिलता है कि-"अकारचन्द्रकान्ताभं सर्वज्ञं सर्वहितं. करम्।" इसका अर्थ है कि चन्द्र की कान्तिवाला 'अ' सर्वज्ञ है और सर्वहितकारी है 'सर्वज्ञ' जैन पारिभाषिक शब्द है। सर्वज्ञ वही होता है, जिसे केवलज्ञान हो जाये । केवल ज्ञान से तात्पर्य है कि जीवात्मा परमात्म रूप हो गया हो, अर्थात् परमानन्द बन गया हो, अर्थात् ज्योतिर्मय हो गया हो---ऐसी ज्योति जो कभी चके न, सदैव बनी रहे--शाश्वत, चिरंन्तन । 'नन्दिकेश्वर काशिका' की 'अकारः सर्ववर्णाग्र्यः प्रकाशः परमः शिवः' पंक्ति से इसकी पुष्टि होती है। इसका अर्थ है कि अकार परम प्रकाश है--ऐसा प्रकाश जो परम शिव है । यहाँ प्रकाश और शिव दो पृथक तत्त्व नहीं हैं । पृथक्त्व सम्भव नहीं है। दिव्य प्रकाश वही है जो शिव हो और शिव वही है जो दिव्य प्रकाश-सा छिटका हो । ‘अकार' ऐसा ही है ।। वर्णमाला के अन्तिम वर्ण 'ह' को लेकर 'अकार' ने जिस बीजमन्त्र की रचना की वह पूर्ण सर्वहितकारी है। बीजमन्त्र है--अहम् । 'विद्यानुशासन' में अहम् को परमसत्ता का प्रतीक कहा गया है। वह शक्ति-सम्पन्न है । जो प्रति दिन इसका ध्यान करता है, वह सब प्रकार से सदैव सुखी रहता है। योगीजन इस परम ज्योतिरूप अक्षरब्रह्म का ध्यान कर स्वयं ज्योतिरूप हो जाते हैं, तत्त्वानुशासन का यह कथन सर्वथा सत्य है। इसमें 'अ' अमृत है, 'र' रत्नत्रय है और 'ह' मोहहन्ता है। तीनों का समन्वय जो समूची वर्णमाला को आप्यायित किये है, परमब्रह्म है । आचार्यों ने इस परम ब्रह्म को 'सिद्धचक्रस्य सद्बीजं सर्वतः प्रणमाम्यहम्' कह कर प्रणाम किया है । एक कारिकाकार ने 'र' को छोड़ कर 'अ' और 'ह' से अहम् पद की सृष्टि की है और लिखा है--अहं स्ववाचक, आत्मबोधक शब्द है, अतः अक्षरों का सत्य आत्म-प्राप्ति में ही उपलब्ध होता है । यायावर श्रमण साधुओं ने ब्राह्मी लिपि को एक युग से दूसरे युग तक और एक देश से दूसरे देश तक फैलाया, यह एक प्रामाणिक बात है। प्राचीन साहित्य और पुरातत्व से इसकी पुष्टि होती है। राहुल सांकृत्यायन ने 'घुमक्कड़ शास्त्र' में इसके अनेकानेक उद्धरण प्रस्तुत किये हैं । एक आचार्य थे दोलामस--नितांत नि:संग और नग्न । सम्राट सिकन्दर ने उन्हें अपने शिविर में बुलाया, वे न गये तो स्वयं आया और उनकी आध्यात्मिक मस्ती से प्रभावित हुए बिना न रह सका। लौटते समय वह उनके संघ के कुछ साधुओं को अपने साथ ले गया। यह एक इतिहास-प्रसिद्ध बात है । इसी आधार पर पं. सुन्दरलाल कह सके कि-'पश्चिमी एशिया यूनान, मिश्र और इथियोपिया के पहाड़ों और जंगलों में उन दिनों हजारों जैन सन्त महात्मा जा-जाकर जगह-जगह बसे हुए थे।" तो, जैन साधुओं ने वहाँ-वहाँ अध्यात्म फैलाया । माध्यम था ब्राह्मी लिपि और उसकी वर्णमाला। आदान-प्रदान ने कुछ न ये रूप दिये, किन्तु वे ब्राह्मी से पृथक् कैसे कहे जा सकते हैं । (आ) For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.003641
Book TitleBrahmi Vishwa ki Mool Lipi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsagar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1975
Total Pages156
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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