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लेख-सामग्री
व्हूलर ने लेख-सामग्री के रूप में भोजपत्र, ताड़पत्र, कागज, रुई का कपड़ा काष्ठफलक, चमड़ा, पत्त्थर, ईटें, विभिन्न धातुएँ और स्याही का उल्लेख किया है। डॉ. राजवली पाण्डेय ने इन्हीं को कतिपय अधिक उद्धरणों के साथ प्रस्तुत किया है । कुछ नया नहीं है। नया हो भी नहीं सकता। कुछ कम-बढ़ यही सामग्री थी जो लिखने के काम आती थीं। जैन ग्रंथ भी इसी सब पर लिखे मिलते हैं। जैनग्रंथों में कहीं-कहीं सैद्धान्तिक रूप से भी इस सामग्री के प्रयोग का वर्णन मिलता है । सोमसेन ने त्रैर्वाणकाचार में लिखा है कि काष्ठफलक पर अखंड चावलों से अक्षर लिखे और छात्र से लिखवावे । यहाँ चावल लेखनविधि का माध्यम है--
"प्राङमखो गरुरासीनः पश्चिमाभिमुखः शिशः । कुर्यादलरसंस्कारं धर्मकामार्थसिद्धये ॥ विशाल फलकादौ तु निस्तुषाखण्डतण्डुलान् । . उपाध्यायः प्रसार्याथ विलिखेदक्षराणि च ॥ शिष्य हस्ताम्बज द्वन्द्व धत पुष्पाक्षतान सितान।
क्षेपयित्त्वाऽक्षराभ्यणे तत्करेण विलेख येत् ॥"१ अर्थ--अध्यापक पूर्वमुख होकर बैठे और बालक को पश्चिम की ओर मुख कर बिठावे । बाद में धर्म, अर्थ और काम की सिद्धि के लिए अक्षर-संस्कार करे। वह इस प्रकार कि--उपाध्याय एक मोटे काष्ट फलक (पट्टी) पर निस्तष (छिलके रहित) अखंड चावलों को बिछा कर पहले स्वयं अक्षर लिखे, बाद में उन अक्षरों के पास बालक के हाथ से सफेद पुष्प और अक्षतों का क्षेपण करवाकर, उस बालक के हाथ को अपने हाथ से पकड़े और बालक से अक्षर लिखवावे ।
काष्टफलक पर अक्षराकृति के विधान की बात ‘भगवती सूत्र' में भी उपलब्ध होती है। उसमें लिखा है कि प्राचीन समय में काष्ठफलक पर सुधा प्रभति द्रव्यों का लेपन कर, अंगुली अथवा नाखूनों से अक्षरों की आकृति बनाई जाती थी। --"पूर्वस्मिन् युगे काष्ठफलकादिकं सुधाप्रभृति द्रव्यरुपलिप्य अंगुलिभिन्डैर्वा अक्षराणामाकृतिर्वा विधीयते स्मेति प्रतीयते ।"२
जैन ग्रंथों के अनुसार प्राचीनकाल में अक्षर लिखने का लोकप्रिय साधन काष्टफलक ही था। उसका सर्वसाधारण में प्रयोग होता था। बालकों को अक्षरारम्भ उसी पर करवाया जाता था । बड़े घरों (सेठ, सामन्त और राजा) १. सोमसेन, वणिकाचार, ८/१७४-१७६. २. देखिए 'भगवती सूत्न' की संस्कृत व्याख्या.
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