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________________ में उन पर कुंकुम और सुधा आदि का लेप होता था किन्तु साधारण जनसाधारण रोगन कर खड़िया से लिखते थे । कात्यायन ने व्यवस्था दी थी कि -- वादों का विवरण काष्ठफलक पर खड़िया से लिखना चाहिए ।' नगर निगमों में ऐसे काठ के पट्ट रंगे रहते थे, जिन पर खड़िया से लेन-देन का व्यौरा लिखा जाता था । अभी तक भारतीय शोध-खोजों में ऐसा कोई ग्रंथ नहीं मिला है, जो कि काष्ठफलकों पर लिखा गया हो। डॉ. विण्टरनित्स ने काष्ठफलक पर लिखा हुआ एक भारतीय ग्रंथ बोडलीन पुस्तकालय में देखा था । २ वर्मा में ऐसे ग्रंथ बहुत मिले हैं। 3 हो सकता है कि यहाँ भी लिखे जाते रहे हों, किन्तु प्रचलन कम ही रहा होगा, ऐसा लगता है । " जैन ग्रंथों के अनुसार लेखन कार्य के लिए स्वर्णपट्टों का भी अधिक प्रयोग होता था । सोमसेन ने ' त्रैवणिकाचार' में जहाँ काष्ठफलक पर निस्तुपाखण्ड तण्डुलों से लिखने की बात कही है, वहाँ उन्होंने विकल्प में हेमपीठ पर कुंकुम का लेप कर स्वर्णलेखनी से अक्षराकृति के विधान का भी उल्लेख किया है । उनका कथन है- "हेमादिपtch वाऽपि प्रसार्य कुंकुमादिकम् । सुवर्णलेखनोकेन लिखेत् तत्राक्षराणि वा ॥ नमः सिद्धेभ्यः इत्यादौ ततः स्वरादिकं लिखेत् । अकारादि हकारान्तं सर्वशास्त्रप्रकाशम् ॥' ११.५. इसका अर्थ है कि सोना-चाँदी आदि के बने हुए पाटे पर कुंकुमकेशर आदि का लेप कर, सोने की लेखनी से उस पर अक्षर लिखे और वालक से लिखवावे | अक्षर लिखते समय सब से पहले 'नमः सिद्धेभ्यः' लिखे । इसके बाद, अकार को आदि लेकर 'ह' कार पर्यन्त --सव शास्त्रों को प्रकाशित करने वाले स्वर और व्यञ्जन लिखे और बालक से लिखवावे । पं. आशाधर ने 'प्रतिष्ठापाठ' में 'ॐ ह्री, श्री, अहं नमः' मंत्र को एक यंत्र पर लिखकर एक सौ आठ बार जपने का निर्देश किया है। यंत्र स्वर्ण पात्र पर बनाया जाये और उस पर पद्मरागमणि के समान प्रभा वाले लोंग के फूलों १. बरनेल, 'एलीमेण्टस् ऑव साउथ इण्डियन पेलियोग्राफी', पृ. ८७, N२. २. व्हूलर, भारतीयपुरालिपिशास्त्र, वाराणसी, पृ. १३२. ३. बरनेल, 'एलीमेण्टस् ऑव साउथ इण्डियन पेलियोग्राफी', पृ. ८७ ४. 'भगवती सूत्र' के विविध उद्धरणों से विदित है कि कुछ जैन उल्लेख काष्ठफलकों पर उकेरे गये थे । ५. सोमसेन, तैर्वाणकाचार, ८/१७७, १७८. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003641
Book TitleBrahmi Vishwa ki Mool Lipi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsagar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1975
Total Pages156
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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