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कोई प्रयोजन या राग भाव नहीं, उसी प्रकार वेद- प्रोक्त शब्दों से यथार्थ का ज्ञान प्राप्त होने पर विद्वान को उन शब्दों से प्रयोजन नहीं रह जाता। अतः शब्द नौका है और अर्थ तटभूमि ।
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शास्त्र अर्थवान् होते हैं । अर्थाभिव्यक्ति ही उनका लक्ष्य है । जैन परम्परा में शास्त्र श्रुत कहलाते हैं । श्रुत वन्दनीय है, क्योंकि वह अगाधज्ञान का कोष है । उससे ज्ञानरूप अर्थ की उपलब्धि होती है । यह श्रुत अथवा शास्त्र पदवाक्यों से बनते हैं और पद-वाक्य वर्णों से रचे जाते हैं । 'पुरुषार्थसिद्ध्युपाय' के कर्ता का कथन है-
"वर्णैः कृतानि चित्रैः पदानि तु पदैः कृतानि वाक्यानि ।
वाक्यैः कृतं पवित्रं शास्त्रमिदं न पुनरस्माभिः ॥ " १
हिन्दी अनुवाद
वर्णों ने पद- वाक्य रचे, वाक्यों ने स्वयं रचित इस आप्त शास्त्र में अहो !
आगम ।
कौन हम ॥
यह पद-वाक्य रूप वाक् ही शास्त्र तथा कला का मुख्य स्रोत है। उसके बिना शास्त्र और कला निरर्थक - से होकर रह जाते हैं । निरर्थक-से क्या, उनकी रचना ही नहीं हो पाती । शायद इसी कारण आदि ब्रह्मा ने सब से पहले वाङ्मय का उपदेश दिया। भगवज्जिनसेनाचार्य ने 'महापुराण' के सोलहवें पर्व में लिखा है
"न बिना वाङमयात् किंचिदस्ति शास्त्रकलापि वा ।
ततो वाङमयमेवादौ वेधास्ताभ्यामुपादिशत् ॥ २
अर्थ- --अक्षर तथा अंक रूप वाङ्मय के बिना किसी भी शास्त्र तथा कला की अभिव्यक्ति नहीं हो सकती - यही विचार कर प्रजापति ने उन्हें प्रारम्भ से वाङमय का ही उपदेश दिया ।
पं. आशाधर ने शब्द और अर्थ के ग्रहणरूप व्यापार को उपयोग कहा है । उनका कथन है कि श्रुत की दृष्टि से शब्द-गत उपयोगदर्शन और अर्थ-गत उपयोग ज्ञान कहलाता है तथा पुरुष आत्मा दर्शन - ज्ञान रूप है । पं. आशाधररचित 'अध्यात्म रहस्य' में लिखा है-
उपयोगश्चित: स्वार्थ-ग्रहण- व्यापृति: श्रुतेः । शब्दगोदर्शनं ज्ञानमर्थगस्तन्मयः पुमान् ॥
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१. पुरुषार्थसिद्धयुपाय, ३/२२६.
२. भगवज्जिनसेनाचार्य, महापुराण, १६ / १०६.
३. पं. आशाधर, अध्यात्मरहस्य, वीर सेवा मन्दिर, दिल्ली, १४ वाँ श्लोक, पृ. ३५.
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