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उपनिषदों का मन्तव्य है कि वैदिक शब्दावली को जानकर उसके अर्थ को जानना चाहिये। यदि ऋचाओं को कण्ठस्थ करना ही वेदज्ञान की परिसमाप्ति मान ली जाय तो यह भ्रान्त धारणा ही होगी। एक श्रुति का कथन है—“स्थाणुरयं भारहारः किलाभूदधीत्य वेदं यो विजानाति नार्थम् ।” अर्थात् वह तो भारवाहक ठूठ ही है, जो वेदपाठी होकर उसका अर्थ नहीं जानता। उपनिषदों के 'अक्षरेण मिमते सप्तवाणी' में सप्तविध वाक् अक्षरों-द्वारा व्यक्त है। यहाँ सप्तविधवाक् का अर्थ-प्रथमा, द्वितीयादि विभक्तियाँ ही नहीं, अपितु सप्तभंगिमा भी है। भंगिमा का अर्थ है-मोड़। सात मोड़ों से तात्पर्य सात दृष्टिकोणोंअस्ति, नास्ति आदि से किसी वाक् का अर्थबोध कराना है। अर्थ अनक्षरात्मक होता है और वाक् अक्षरात्मक । अक्षरात्मक वाक् से अनक्षरात्मक अर्थ का दोहन ही वाक् का वांछित विषय है ।
शब्द और अर्थ के सम्बन्ध को समझने के लिए 'सोऽहं' तथा 'ओ३म्' का उदाहरण समीचीन होगा। साधक प्रथमावस्था में द्वैत-परिच्छिन्न अथवा मायाशबल होने से अपने को 'सोऽहम्'-वह परमात्मा मैं हूँ-ऐसा सोचता है । उस समय वह परमात्मा के लिए 'सः' पद का प्रयोग करता है। सः उसके लिए कहा जाता है जो दूर अथवा परोक्ष हो। शनैः-शनैः साधक के सिद्धावस्था में पहुँचने पर वह उस परोक्ष को साक्षात् कर लेता है, उस समय वह सोऽहम् के स्थान पर 'ओ३म्' कहता है । 'ओ३म् परमात्मपरक शब्द है तथा संस्कृत में उसका अर्थ 'स्वीकार' है। परमात्मा के साथ अपने तादू प्य स्वीकार को 'ॐ' शब्द से कहा गया है। यहाँ शब्द अपनी पौद्गलिक सीमा से ऊपर उठकर अर्थ की गरिमा से महनीय हो उठा है। इसका यही आशय है कि शब्द-द्वारा अर्थ को प्राप्त करना अभीष्ट है । एतावता शब्द वाहन है और अर्थ गन्तव्य देश-प्राप्ति । यदि शब्द अर्थरूप-गन्तव्य देश प्राप्ति में असमर्थ हैं, तो वे काष्ठनिर्मित उस अश्व के समान हैं, जो नामधारी अश्व तो हैं, परन्तु तदर्थ सम्पादक नहीं। गीता में एक स्थान पर लिखा है
“यावानर्थ उदपाने सर्वतः सम्पलतोक्के ।
तावान् सर्वेषु वेदेषु ब्राह्मणस्य विजानतः ॥" ३ । अर्थ-चारों ओर भरे हुए जलाशयों में से, तृषित व्यक्ति को अपने तृषाशमनमात्र जल की आवश्यकता है। तृषा-पूर्ति होने पर भरे हुए पानी के प्रति उसका १. समाधितंत्र, वीर-सेवा मन्दिर, दिल्ली, २८ वां श्लोक, पृष्ठ ३६.
और अध्यात्मरहस्य, वीर-सेवा-मन्दिर, दिल्ली, ४४ वा श्लोक, पृष्ठ ५४. २. श्रीमद् भगवगीता, २/४६. द्
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