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वर्ण
'वर्ण्यते यः स वर्णः ।' 'वर्ण प्रेरणे' (चु. प. से.) घञ् (३/३/१९ भावे) पाणिनिः । वर्ण प्रेरणा अर्थ में आता है । उसके आगे धा प्रत्यय लगाने से 'वर्ण:' निष्पन्न होता है। वर्ण भावों और विचारों को प्रेरणा देते हैं, अतः उसका प्रेरणा अर्थ सार्थक ही है । यदि वर्ण को अच् प्रत्यय से सम्पन्न माना जाये (३/१/१३४) तो व्युत्पत्ति होगी- वर्णयतीति वर्णः ।
वर्ण के अनेक अर्थ होते हैं । अमरकोष में लिखा है, "वर्णाः स्युः ब्राह्मणादयः।"" यहाँ ब्राह्मणादि का अर्थ है--ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र । मेदनी कोश में वर्ण शब्द-“वर्णो द्विजादि-शुक्लादि यज्ञे गुणकथासु च । स्तुतौना न स्त्रियां भेदरूपाक्षरविलेपने ।।"२ अर्थो में आया है । हेमकोश के अनुसार वर्ण शब्द--"वर्णः स्वर्णे व्रते स्तुतौ । रूपे द्विजादौ शुक्लादौ कुथायामक्षरे गणे। भेदे गीतक्रमे चित्रे यशस्तालविशेषयोः । अंगरागे च वर्णं तु कुंकुमे ।"3 अर्थों में माना गया है। इस सब के आधार से स्पष्ट है कि जब कोई भाव, विचार अथवा चेतनरूप वस्तु , किसी प्रकार का निश्चित रूप या आकार ग्रहण करता है, तो उसे वर्ण कहते हैं । जब आदि प्रजापति ऋषभदेव और उनके चक्रवर्ती पुत्र भरत ने कर्मानुसार मानवों को चार जातियों में विभक्त किया, तो इसका अर्थ था कि उन्हें एक निश्चित रूप दिया। शायद इसी कारण उन्हें वर्ण कहा गया। भेद-प्रभेदों का अर्थ ही एक निश्चित रूप अथवा आकार निर्धारित करना है। फिर वह आकार चाहे मानवों का हो, चाहे यज्ञों का, चाहे रंगों का, चाहे गीतों का, चाहे स्तुतियों का और चाहे अक्षरों का, उन्हें वर्ण संज्ञा से ही अभिहित किया जायेगा।
__ अ, क, ख, ग को जब लिपि-रूप प्राप्त हुआ, तब उन्हें वर्ण कहा जाने लगा। किसी विषय विशेष का निरूपण करना वर्णन है और वर्ण उसकी साधन-सामग्री है। अक्षरात्मिका वाक् वर्णमयी है। अक्षरों का आकृति भेद से परिचय करना ही वर्ण-रचना का विषय है। पाणिनि शिक्षा ३ में एक स्थान पर लिखा है-“त्रिषष्टिश्चतुःषष्टिर्वावर्णाः शम्भुभते मताः । प्राकृते संस्कृते चापि स्वयं प्रोक्ताः स्वयम्भुवा।” यहाँ 'प्रोक्त' शब्द विशेष ध्यान देने योग्य है । उच्चारण-जन्य अक्षर प्रोक्त होता है । अतः वर्ण का अर्थ वह आकृतिमान स्फोट है, जिसे स्वयम्भू ने त्रिषष्टि अथवा चतुःषष्टि संख्या में आबद्ध किया है।
१. अमरकोष, २/७/१, पृ. ३२४. २. मेदिनीकोश, ६३/४६. ३. हैमकोश, २/१५३-१५५.
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