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'सरस्वती कण्ठाभरण' में धारापति भोजदेव ने 'ध्वनिवर्णाः पदं वाक्यमित्यास्पदचतुष्टयम् । यस्याः सूक्ष्मादि भेदेन -' लिखते हुए वर्ण को वाणी का द्वितीय चरण माना है ।" यह वर्ण ध्वनि से स्थूल है तथा पदवाक्यरचना का आधार हैं । ध्वनि अस्फुटाक्षर होता है और वर्ण अक्षरात्मकता ग्रहण कर ध्वनि को स्पष्टता प्रदान करते हैं । जैसे संस्कृत की संख्यावाची ध्वनियों को वर्ण एकम् द्वे, त्रीणि चत्वारि, मंत्र, पद, सप्त, अष्ट, नव यदि आकार देकर स्पष्ट कर देते हैं । इसी प्रकार अंग्रेजी की संख्यावाची ध्वनियों की ए. टू, श्री, फोर, फाइब, सिक्स आदि आकार वर्ण ही देते हैं। इसी प्रकार भगवान् की दिव्यध्वनि ने भी वर्गों के माध्यम से ही स्पष्टता प्राप्त की थी। उसे निरक्षरी मानना उपयुक्त नहीं है । भगवज्जिनसेनाचार्य ने महापुराण में लिखा है-
"देवकृतो ध्वनिरित्यसदेतद् देवगुणस्व तथा बिहितिः स्यात् । साक्षर एव च वर्गसमूहानेव विनातिर्जगति स्यात् ॥"
अर्थ- किसी-किसी की मान्यता है कि भगवान् की दिव्यध्वनि देवों के द्वारा की जाती है, किन्तु उनका वैसा कथन असत् है । यदि देवकृत मानी जाय तो दिव्यध्वनि देवगुण कहलायेगी, भगवत् गुण नहीं। इसके अतिरिक्त, दिव्य ध्वनि साक्षर-अक्षर रूप होती है, क्योंकि अक्षरों के समूह के बिना अर्थ का परिज्ञान नहीं होता ।
अक्षर समूह को 'अक्षरसमाम्नाय' अथवा 'वर्ण समाम्नाय' कहते हैं । कातन्त्र व्याकरण में 'वर्ण समाम्नाय' का विवेचन है । 3 शम्भु के मतानुसार 'वर्ण समाम्नाय' में त्रेसठ अथवा चौंसठ वर्ण माने जाते हैं । गोम्मटसार जीवकाण्ड में लिखा है, "तेतीस वेजणाहं, सत्तावीसा सरा तहा भणिया । चत्तारि य जोगवा, चउसट्ठी मूलवण्णाओ ।" अर्थात् ३३ व्यञ्जन, २७ स्वर ( ९ ह्रस्व, दीर्घ, ९ प्लुत) और चार योगवाह (अनुस्वार, विसर्ग, जिह्वामूलीय, उपपध्मानीय ) मिलकर ६४ मूलवर्ण होते हैं । भगवती आराधना में भी इन्हीं मूलवर्णों का विवेचन हुआ है । ये ६४ मूलवर्ण प्राकृत वर्णमाला के हैं । संस्कृत भाषा की अक्षरमाला में ३३ व्यञ्जन, २२ स्वर (५ ह्रस्व, ८ दीर्घ और ९ प्लुत ), ४ योगवाह और ४ युग्माक्षर ( यम ) - कुल ६३ मूलाक्ष
१. देखिए धारापति भोजदेव का सरस्वतीकण्ठाभरण.
२. भगवज्जिनसेनाचार्य, महापुराण, २३ / ७३.
३. 'सिद्धो वर्णसमाम्नाय : ' भावसेनकृत कातन्त्रव्याकरण, २
४.
पाणिनिशिक्षा - ३.
५. गोम्मटसार जीवकाण्ड, गाथा ३५२, पृ. २००.
६. भगवती आराधना - १८.
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