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गुणों को प्राप्त किया है। तथा आप परिग्रह-रहित स्वतंत्र हैं। इसलिए पूज्य
और सुरक्षित हैं । आपने ज्ञानावरणादि कर्मों के विस्तृत-अनादिकालिक सम्बन्ध को नष्ट कर दिया है, अतः आपकी विशालता-प्रभुता स्पष्ट है-आप तीनों लोकों के स्वामी हैं।
भैय्या भगवतीदास ने 'ब्रह्मविलास' में एकाक्षरो, द्वयक्षरी, त्रयक्षरी और चतुरक्षरी आदि दोहों का प्रयोग किया है । उनमें से एकाक्षरी का उद्धरण है
"नानी नानी नाम में, नानी नानी नान ।
नन नानी नन नानने नन नैना नन नान ॥"" आचार्य समन्तभद्र ने नमिजिन की स्तुति में द्वयक्षरी, त्रयक्षरी आदि श्लोकों की रचना की है । आचार्य समन्तभद्र दार्शनिक और तार्किक थे, तो उत्तमकोटि के साहित्यकार और भक्त भी। भक्ति साहित्य की तो उन्होंने धारा ही प्रवाहित की है। उनकी 'द्वयक्षरी श्लोक' में की गई स्तुति है
"नमेमान नमामेन मान मान नमा नमा।
मनामोनु नुमोनामनमनोमम नो मन ॥"२ अर्थ-हे नेमिनाथ ! आप अपरिमेय हैं-हमारे जैसे अल्पज्ञानियों के द्वारा आपका वास्तविक रूप नहीं समझा जाता। आप सब के स्वामी हैं। आपका ज्ञान सब जीवों को प्रबोध करने वाला है। आप किसी से उसकी इच्छा के विरुद्ध नमस्कार नहीं कराते । आप वीतराग हैं और मोह-रहित हैं; अत: आपको सदाकाल नमस्कार करता हूँ-हमेशा आपका ध्यान करता हुआ आपकी स्तुति करता हूँ। प्रभो! मेरा-मुझ शरणागत का भी ध्यान रखिए -मैं आपके समान पूर्णज्ञानी तथा मोह-रहित होना चाहता हूँ।
भैय्या भगवतीदास ने एक द्वयक्षरी दोहे में कहा है कि जैनों को जैन नय अवश्य जानने चाहिये । वह दोहा इस प्रकार है
"जैनी जाने जैन नै, जिन जिन जानी जैन ।
जे जे जैनी जैन जन, जाने निज निज नैन ॥"3 अर्थ-जैन वह है जो जैन शास्त्रोक्त नयों को जानता है और जिन्होंने उन नयों को नहीं जाना, उनकी जय नहीं होती, अत: जो जो जैन धर्म के दास हैं. उन्हें अपने-अपने नयों को जानना ही चाहिए। १. भैय्या भगवतीदास, ब्रह्मविलास, पृ. २७६. २. 'स्तुतिविद्या', मुख्त्यार-सम्पादित, सरसावा, ६४ वां श्लोक, प. ११५ ३. ब्रह्मविलास'. १५ वाँ दोहा, प. २८१.
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