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त्मकश्च । तत्र ध्वन्यात्मको भेर्यादौ । वर्णात्मक प्राकृत-संस्कृत भाषादिरूपः।"१ इसका अर्थ है कि श्रोत्रेन्द्रिय से ग्रहण किया जाने वाला गुण शब्दात्मक है। वह ध्वन्यात्मक और वर्णात्मक दो प्रकार का है। शंख, भेरी आदि का शब्द ध्वन्यात्मक तथा प्राकृत-संस्कृत आदि भाषागत शब्द वर्णात्मक है। ध्वनि अस्फुटाक्षर होती है । वर्ण अक्षरात्मकता ग्रहण कर ध्वनि को स्पष्टता प्रदान करते हैं। __ प्रश्न है शारीरिक चेष्टाओं का-वे श्रुत की कोटि में आती है या नहीं? उपर्युक्त परिच्छेद में कहा जा चुका है कि वे चेष्टाएँ जो दृश्यमान हैं, अनक्षर श्रुत में आती है। सांकेतिक भाषा के अतिरिक्त सांकेतिक चेष्टाएँ भी श्रुत का विषय है। किन्त, प्रसिद्ध भाष्यकार जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ने विशेषावश्यक भाष्य में शारीरिक चेष्टाओं को श्रुत का विषय नहीं माना है। उनके अनुसार जो सुनने योग्य है, वही श्रुत है, अन्य नहीं । शारीरिक चेष्टाएँ सुनाई नहीं देती, अतः उन्हें श्रुत नहीं कहा जा सकता। इसका अर्थ हुआ कि क्षमाश्रमण श्रुत शब्द को यौगिक मानते हैं, किन्तु भद्दाकलंक के तत्त्वार्थ राजवात्तिक में-"श्रुत शब्दोऽयम् रूढ़िशब्द: इति सर्वमतिपूर्वस्य श्रुतत्त्वसिद्धिर्भवति ।"3 अर्थात् श्रुत शब्द रूढ शब्द हैं और श्रुत ज्ञान में किसी भी प्रकार का मतिज्ञान कारण हो सकता है। आचार्य उमास्वामी ने 'श्रुतं मतिपूर्व' दिया है। तो फिर, दृश्यमान शारीरिक चेष्टा भी मतिज्ञानपूर्वक हो सकती है और इस कारण उसे श्रुतज्ञान की कोटि में गिना जाना चाहिए।
गोम्मटसार जीवकाण्ड में श्रुतज्ञान के तीसरे भेद अक्षर ज्ञान को तीन प्रकार का बतलाया गया है-लब्ध्यक्षर, निर्वृत्ति अक्षर और स्थापना अक्षर । इनमें-से लब्ध्यक्षर के सम्बन्ध में लिखा जा चुका है। मुख से उत्पन्न किसी भी स्वर या व्यञ्जनादि को, जो मूल वर्ण या संयोगी वर्ण हो निर्वृत्ति अक्षर कहते हैं। किसी भी देश या काल की प्रवृत्ति के अनुकुल, किसी भी प्रकार की लिपि में लिखित किसी भी अक्षर को स्थापना अक्षर कहते हैं । गोम्मटसार जीवकाण्ड में ही, अक्षरात्मक और अनक्षरात्मक श्रुतज्ञान का भली-भाँति विश्लेषण करने के लिए बीस भेद किये गये हैं। जिनमें से प्रथम दो पर्यायज्ञान और पर्याय समासज्ञान अनक्षरात्मक श्रुतज्ञान के भेद है और अवशिष्ट अठारह अक्षरात्मक के ।५ उनमें एक अक्षर ज्ञान है
और दूसरा अक्षर समास ज्ञान । अक्षर ज्ञान वह है जो केवल एक मूलाक्षर अथवा संयोगी अक्षर से सम्बन्धित हो, इसी को अर्थाक्षरज्ञान भी कहते हैं । यह पर्याय
१. देखिए जैन न्याय और सिद्धान्त ग्रन्थ. २. विशेषावश्यक भाष्य, गाथा ५०३, पृष्ठ २७५. ३. भट्टाकलंक, तत्त्वार्थराजवार्तिक, १/२० सूत्र की अकलंक-कृत वात्तिक. ४. उमास्वामि, तत्त्वार्थसूत्र, १/२० और षट्खण्डागम-सत्प्ररूपणासून, वाराणसी-५, पृष्ठ १२०. ५. गोम्मटसार जीवकाण्ड, जे. एल. जैनी सम्पादित, लखनऊ, गा. ३१७, ३१८, ३४८, ३४६.
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