________________
प्राप्त हुई। आचारांग आदि सूत्र 'सुयं मे-जैसे वाक्यों से प्रारम्भ होते हैं : यह मोखिक परम्परा-सुन-सुन कर याद रखना-शतान्दियों तक चलती रही। इसका अर्थ यह नहीं है कि प्राचीन आचार्यों को लिखना नहीं आता था। इसके विपरीत, वे प्रत्येक अक्षर और शब्द के उच्चारण-ह्राव, दीर्घ, लुप्त और काना-मात्रा आदि के प्रति इतने सतर्क थे कि उनमें यत्किञ्चित् परिवर्तन भी उन्हें सह्य नहीं था। शास्त्र-लेखन के प्रति उदासीनता का कारण था-जैन श्रमणों की चर्या, साधना
और परिस्थिति । उसमें अहिंसा एवं अपरिग्रह मुख्य थे, और शास्त्र लेखन में हिंसा तथा परिग्रह की संभावना थी। शायद इसी कारण बृहत्कल्प नामक छेद सूत्र में स्पष्ट विधान है कि पुस्तक पास में रखने वाला श्रमण प्रायश्चित् का भागी होता है ।' ___ श्रुतज्ञान के दो मुख्य भेद है—अक्षरश्रुत और अनक्षरश्रुत । अक्षरश्रुत में विविध भाषाएँ, लिपियाँ और संकेत समाविष्ट हैं । 'बृहत् जैन शब्दार्णव' में अक्षरश्रुत के सम्बन्ध में लिखा है, "वह ज्ञान जो कम-से-कम एक अक्षर-सम्बन्धी हो और अधिक-से-अधिक श्रुत ज्ञान के समस्त अक्षरों से पूर्ण हो ।”२ पूर्ण अक्षरात्मक श्रुतज्ञान के दो भेद है--अंगप्रविष्ट और अंगवाह्य । इसमें अङ्ग-प्रविष्ट के आचारांग आदि बारह भेद है और अंगबाह्य के अनेक । सर्वार्थसिद्धि में एक शंका उठाई गई है--आचारांग आदि भाषात्मक शास्त्र है, फिर वे श्रुतज्ञान के भेद कैसे हो गये ? उत्तर देते हुए आचार्य ने लिखा है कि-मोक्ष के लिए इन शास्त्रों का अभ्यास विशेष उपयोगी है, इसलिए कारण में कार्य का उपचार करके भाषात्मक शास्त्रों को ही श्रुतज्ञान में गिना दिया है। इसका तात्पर्य है कि श्रुतज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम का और भाषात्मक शास्त्रों का अन्योन्य सम्बन्ध है । अनक्षरश्रुत में श्रूयमाण अव्यक्त ध्वनियों तथा दृश्यमान शारीरिक चेष्टाओं का समावेश किया जाता है । अव्यक्त ध्वनियाँ तथा चेप्टाएँ भी बोध का निमित्त बनती है। इस प्रकार कराह, चीत्कार, निःश्वास, खकार, खाँसी, छींक आदि बोधनिमित्त संकेत अक्षर-श्रुत में समाविष्ट है।
ध्वनि व्यक्त हो या अव्यक्त–सुनाई देनी चाहिए। यदि सुनाई नहीं देती तो वह श्रुत में शमिल नहीं की जा सकती। व्यक्त ध्वनि वर्णात्मक होने से अक्षरश्रुत कहलायेगी और भेर्यादि की ध्वनि अव्यक्त होने से अनक्षर श्रुत रूप होगी। न्याय शास्त्र में लिखा है--"श्रोत्रग्राह्योगुणः शब्दः । सः द्विविधः । ध्वन्यात्मको वर्णा१. जैन साहित्य का बृहत् इतिहास, भाग १, पृ० ८. २. 'बृहत् जैन शब्दार्णव' पृष्ठ ४१, और गोम्मटसार जीवकाण्ड, गाथा ३३३, पृ० १९३. ३. आचार्य पूज्यपाद, सर्वार्थसिद्धि-देखिए 'श्रुतं मतिपूर्व द्वयने कद्वादशभेदम' १/२० की संस्कृत
व्याख्या. ४. जैन साहित्य का बहत इतिहास, भाग १, पष्ठ १४
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org