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________________ अल्पज्ञान की स्थिति सूक्ष्म निगोदिया जीव में होती है, अर्थात् तीर्थकर सर्वज्ञ होने से ज्ञान के चरमोत्कर्ष को प्राप्त होते हैं, उसी प्रकार निगोदिया जीव ज्ञान के अत्यारम्भिक उन्मेषमात्र को प्राप्त होते हैं। केवलज्ञान और श्रुतज्ञान में केवल इतना अंतर है कि केवलज्ञान की प्रवृत्ति सब द्रव्यों में और द्रव्यों की सब पर्यायों में होती है, जबकि श्रुतज्ञान की प्रवृत्ति सब द्रव्यों में तो होती है किन्तु उसकी कुछ ही पर्यायों में होती है । केवलज्ञान प्रत्यक्ष और पूर्ण विशदज्ञान है, जबकि श्रुतज्ञान परोक्षज्ञान है। परोक्ष इसलिए कि अपने मानस पर प्रत्यक्ष करने के लिए उसे चिन्तन का सहारा लेना होता है। इसके अतिरिक्त केवलज्ञान ज्ञानावरणीय और दर्शनावरणीय कर्म प्रकृतियों के क्षय से होता है और श्रुतज्ञान क्षयोपशम से, अर्थात् एक क्षायिक है और दूसरा क्षायोपशमिक, किन्तु दोनों ज्ञान हैं और दोनों का सम्बन्ध आत्मोपलब्धि से है। षट्खण्डागम के सत्प्ररूपणासूत्र में एक शंका उपस्थित की गई है कि जब अक्षर श्रुतज्ञान का साधनभूत है, तब उसे श्रुत संज्ञा से अभिहित क्यों किया गया ? समाधान है कि कारण में कार्य के उपचार में ऐसा हुआ है। इस प्रकार अक्षर को उपचार से श्रुतज्ञान की संज्ञा दी गई है। प्रवचनसार की एक गाथा में भी यह ही भाव अभिव्यक्त किया गया है। वह गाथा है “सुत्तं जिणोवविठ्टं पोग्गलदव्वप्पर्गेहि वयणेहि ।। तं जाणणा हि णाणं सत्तस्स य नाणणा भणिया ॥"२ भगवान जिनेन्द्र देव द्वारा प्रतिपादित श्रुत पुद्गल द्रव्यात्मक है। एतावता पौद्गलिक वचन भी भागवत ज्ञान के प्रति-ज्ञप्ति के प्रति साधनभत हैं । उन शब्दों से ज्ञप्ति ही शेष रहती है। यह शब्दात्मक शास्त्र ज्ञेय ज्ञान के फलितार्थ का साधक होने से उपचार से ज्ञान कहा जाता है, जैसे-अन्नप्राणाः-अन्न प्राण है, ऐसा व्यवहार में कहा जाता है, क्योंकि अन्न प्राण-धारण में सहकारी है, परन्तु तत्त्वतः ऐसा नहीं है। यदि अन्न सर्वथा प्राणात्मक होता तो अन्नोपलब्धि-पर्यन्त प्राणों का नाश नहीं होना चाहिए । श्रुतज्ञान का श्रुत शब्द पुराना है । वेदों की ऋचाओं को श्रुति कहते हैं । वेदों के बाद, वैदिक परम्परा में श्रुति शब्द का व्यवहार नहीं हुआ। जैन आचार्यों ने समस्त प्राचीन शास्त्रों को श्रुत कहा और यह शब्द आज भी प्रचलित है। कहीं किसी सीमा पर रुका नहीं। श्रुत का अर्थ है-सुना हुआ। यह एक यौगिक शब्द है । तदनुरूप ही सुन-सुन कर जिस जान को सुरक्षित रखा गया, उसे शास्त्र की संज्ञा १. सत्प्ररूपणासूत्र, पं. कलामचन्द्र सम्पादित, बारापसी-५, . १२०.. २. प्रवचनसार, वाचार्य कुन्दकुन्द, मारोठ (राव.), लोक ३४ बाँ, इ. ३६. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003641
Book TitleBrahmi Vishwa ki Mool Lipi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsagar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1975
Total Pages156
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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