________________
३२
आचार्य सिद्धसेन ने "कल्याण मंदिरस्तोत्र' में विरोधाभास के माध्यम से भगवान् की स्तुति करते हुए एक पंक्ति में लिखा है, "किं वाक्षरं प्रकृतिरप्यलिपिस्त्वमीश ।"१ इसका अर्थ है कि हे ईश ! आप अक्षर प्रकृति होकर भी अलिपि-अर्थात् लिपि रहित हैं। जब अक्षररूप हैं तो लिपि रूप हैं, फिर लिपि रहित कैसे हो गये ? समाधान है कि आप अक्षर रूप हैं, अर्थात् अविनाशी हैं और लिपि-रहित का अर्थ है-लेपरहित हैं-कर्मलेपरहित हैं। अथवा, अलिपि का अर्थ है कि आप लिपि के घेरे में नहीं समा पाते। लिपि ससीम है और आप असीम हैं। अतःलिपि द्वारा कही गई स्तुति आपके सम्पूर्ण को कहने में असमर्थ है।
जैनधर्म का सविकल्पध्यान वर्णाकृतिमलक होता है, अर्थात् उसमें वर्णों के आकार को आधार बनाकर ध्यान किया जाता है । धर्म्यध्यान का एक उपभेद है-पदस्थ ध्यान । इसमें एक या अनेक अक्षरों से बने मंत्रों ऊँ, ह्रीं, हं, णमो अरिहन्ताणं, अ सि आ उ सा आदि का अथवा इनके वाच्य परमात्म तत्व का एकाग्र चिन्तवन किया जाता है। इसके अनेक भेदों में से एक भेद का नाम है'अक्षर मातृका ध्यान' । इसमें माना गया है कि नाभिकमल, हृदय कमल और मुख कमल पर चक्राकार घूमते हए स्वर और व्यञ्जनों पर मन केन्द्रित करने से परमात्म पद प्राप्त होता है । प्रतिष्ठासारोद्धार में ‘णमो-अरिहन्ताणं' को ब्रह्माह का प्रतीक माना है, यहाँ तक कि उसे शब्द ब्रह्म की संज्ञा दी है। उसकी इन्द्रादिदेव आराधना करते हैं । वह श्लोक है
"द्दक शुद्धयादिसमिद्धशक्ति परम ब्रह्म प्रकाशोद्धरं; शब्दब्रह्मशरीरमीरित विपद्यन् मूलमन्त्रादिभिः । इन्द्राद्यैरभिराध्यते तदमितो दीप्ताग्निः सः क्ष्मासने,
न्यस्यार्चामि सुभुक्तिमुक्तिदमहं ब्रह्माहमित्यक्षरम् ॥"3 अर्थ-ब्रह्माह का तात्पर्य है कि अरहन्त परमेष्ठी ब्रह्म हैं और वे अक्षरात्मक हैं, अर्थात् शाश्वतिक हैं-क्षरतीतिक्षरं पुद्गल द्रव्यं तद्भिन्नमक्षरात्मा शाश्वतिक :। शाश्वतिक का अर्थ है-अविनश्वर । वे अहँ स्वरूप परमात्मा सम्यगदर्शनादि १. “विश्वेश्वरोऽपि जनपालक दुर्गतस्त्वं,
कि वाक्षरप्रकृतिरप्यलिपिस्त्वमीश। अज्ञानवत्यपि सदैव कथञ्चिदेव ज्ञानं त्वयि स्फुरति विश्वविकासहेतुः ।।" ।
-कल्याणमन्दिर स्तोत्र, ३० वा श्लोक २. शा. प्र. ३८, श्लोक २-६, उ. १,२. ३. प्रतिष्ठासारोद्वार, ३/३.
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org