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उस अक्षर रूप परमात्मा को अभिव्यक्त करने वाले स्वर, व्यञ्जन, ध्वनि और ध्वनि संकेत निमित्त रूप होते हैं, अतः उन्हें भी अक्षर कहते हैं, नन्दिकेश्वर काशिका में लिखा है
"अकारः सर्व वर्णाग्याः प्रकाशः परमः शिव: ।
आधमन्त्येन संयोगावहमित्येव जायते ॥” ' इसका अर्थ है कि अकार अर्थात् 'अ' यह अक्षर समस्त वर्गों में प्रथम है। यह शास्त्रादि की रूपात्मकता का जनक होने से प्रकाश रूप है, परम है, शिव है। इस प्रथमाक्षर अतथा अंतिम अक्षर ह के संयोग से 'अहं' सिद्ध होता है और अहं का अर्थ है-आत्मब्रह्म। अतः यह 'अक्षरसमाम्नाय' साभिप्राय है-परमात्म बोधक है। इसी अर्थ का द्योतक एक श्लोक आचार्य जिनसेन के आदि पुराण में सुनिबद्ध है--
__ "अकारादिहकारान्तरेफमध्यान्तबिन्दुकम् ।
ध्यायन पमिदं बीजं मुक्त्यर्थी नावसीदति ॥” अर्थ-आद्य अ और अन्त्य ह के संयोग से अहं सिद्ध होता है। इसके मध्य में रेफ तथा मस्तक पर बिन्दु लगाने से अहं पद बनता है । यह अर्ह परमबीज मंत्र है । इस परम बीज मंत्र का ध्याता योगी मक्त्यभिलाषी होता है और कभी अवसाद को प्राप्त नहीं होता, अर्थात् मुक्ति पा ही लेता है। ऐसा ही एक श्लोक श्लोकवार्तिक में भी आया है
"वर्णज्ञाने वाग् विषयो यत्र च ब्रह्म वर्तते ।
तदर्थमिष्टबुद्धयर्थ लध्वर्थ चोपदिश्यते ॥"3 अर्थात् यह वर्णज्ञान वाक् का विषय है, जिसमें ब्रह्म का निवास है। अकार से हकार-पर्यन्त अक्षरवाणी का वर्णात्मक लौकिक संघटन है, सारा संसार इन अ-हात्मक अक्षरों से सम्बोधित किया जाता है। समस्त लोक को इस प्रकार अपने वर्णकुण्डल में परिवेष्टित करने वाली कुण्डलिनी का विषय सहस्रार में स्थित परम शिव ही है, जिसे ब्रह्म कहते हैं- इस प्रकार वाक में ब्रह्म की स्थिति है। जब कोई जीव परमात्मा को सम्बोधित करता है, तब उसे ब्रह्म, परमात्मा, परमेश्वर आदि कहने के लिए वाक् का ही आश्रय लेना होता है। इष्ट का ज्ञान भी वाक् से ही होता है, इस हेतु से वर्णज्ञान (अक्षर विषयक परामर्श) उचित ही है। १. नन्दिकेश्वरकाशिका, ४. २. आचार्य जिनसेन, आदिपुराण, २१/२३१. 3. देखिए श्लोकवार्तिक.
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