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हो जायेगा। कहा जायेगा गौ लाने को और वह ले आयेगा शकरकन्द, कहा जायेगा सिन्दूर लाने को और वह ले आयेगा जरदा । ऐसी अव्यवस्थित दशा में भाषा उद्देश्यहीन बन कर यह जायेगी। ___ एक दूसरा प्रश्न है कि शब्द अपने अर्थ से भिन्न है या अभिन्न । यदि सर्वथा भिन्न होता तो शब्द के द्वारा अर्थ का ज्ञान हो ही नहीं सकता था। “वाच्य को अपनी सत्ता के ज्ञापन के लिए वाचक चाहिए और वाचक को अपनी सार्थकता के लिए वाच्य चाहिए। शब्द की वाचक पर्याय वाच्य के निमित्त से बनती है और अर्थ की वाच्य पर्याय शब्द के निमित्त से बनती है, इसलिए दोनों में कथञ्चिद् तादात्म्य है। सर्वथा अभेद इसलिए नहीं कि वाच्य की क्रिया वाचक की क्रिया से भिन्न है।" वाचक बोध कराने की पर्याय में होता है और वाच्य ज्ञेय पर्याय में। वास्तविकता यह है कि शब्द वही है, जो अर्थवान हो। अर्थ के बिना शब्द 'स्थाणुरयं भारहारः--जैसा है । इसी को भर्तहरि ने अपनी दार्शनिक भाषा में कहा है कि अर्थब्रह्म के बिना शब्दब्रह्म की कोई सत्ता नहीं है । शब्द और अर्थ एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। इसी को वाक्यपदीयम् (२।३१) में “एकस्यैवात्मनौ भेदौ शब्दार्थावपृथक् स्थितौ।” कहा गया है । कालिदास ने कुमारसम्भव में वाक्
और अर्थ को संपृक्त मानते हुए हर और पार्वती के समान कहा है । महात्मा तुलसीदास ने वाक् और अर्थ को जल और तरंग के समान कहते हुए लिखा है, "गिराअरथ जल-वीचि सम कहिअत भिन्न-न-भिन्न २ ।" जल-वीचि की बात पुष्पदन्त और स्वयम्भू ने पहले ही लिखी थी।
__ आज, जब तेजी से बदलते इस युग के जीवन मूल्यों में संतुलन रख पाना कठिन हो गया हो, तब मैं अतीत की गहराइयों में डूबा रहूँ, सम्भव न था । सम्भव हुआ एक वीतरागी साधु को निष्काम प्रेरणा और सतत मंगलवर्षा से । कार्य आसान नहीं था । बज्रमणि में छेद करने-जैसा ही था। मुझे तो ऐसा ही लगा। अनवरत श्रम तो आवश्यक था ही, किन्तु सतत निष्ठा और एकाग्रता के बिना तो कुछ हो ही न पाता। मेरी कुटिया में निष्ठा का दीप जलता रहा और जलता रहा। किसी राग-द्वेष अथवा माया-मोह का प्रभञ्जन उसे चुका न सका। तो, मैं उस स्नेह का आभारी हूँ, जिसने इस दीप की बत्ती को, धीमे-धीमे ही सही, मन्द-मन्द ही सही जलने दिया। वह स्नेह था एक श्रमण साधु का, जो मुझे एक आशीर्वाद के रूप में मिला था। स्नेह-दिव्य स्नेह, राग-रहित, मोह-रहित । जैन ग्रन्थों की साधना
१. जैन दर्शन, मनन और मीमांसा, पृष्ठ 607.
२. रामचरित मानस. बालकाण्ड 18
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