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________________ १८ इतना ही नहीं, उन्होंने शब्द की उत्पत्ति, शीघ्रगति और लोक-व्यापित्व आदि पहलुओं पर भी पूरा प्रकाश डाला है । जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति में लिखा है कि सुघोषा घण्टा का शब्द असंख्य योजन की दूरी पर स्थित घण्टाओं में प्रतिध्वनित होता है। यह उस समय की बात है, जबकि रेडियो, वायरलेस आदि का अनुसन्धान नहीं हुआ था । शब्द क्षण-मात्र में लोक-व्यापी बन जाता है। शब्द पुद्गल-स्कन्धों के संघात और भेद से उत्पन्न होता है। उसके भाषा, शब्द और नोभाषा शब्द आदि अनेक भेद हैं। बोलने के पूर्व, वक्ता भाषा परमाणुओं को ग्रहण करता है, फिर भाषा के रूप में उनका परिणमन करता हुआ अन्त में उत्सर्जन करता है।' ग्रहण और उत्सर्जन में केवल एक समय का व्यवधान होता है। जीव गृहीत भाषा-द्रव्यों को धारण करके रख नहीं सकता। जिस समय में ग्रहण करता है, उसके दूसरे ही समय में निसर्ग करना होता है । उत्सर्जन के द्वारा बाहर निकले हुए भाषा-पुद्गल आकाश में फैलते हैं। बाहर निकले शब्दों का वेग इतना तीव्र होता है कि एक ही समय में वे लोक के अन्त तक जा पहुँचते हैं। बिजली की तरह लपलपाती शब्दों की तीव्रगति आज ध्वनि यन्त्रों पर साक्षात् की जा सकती है । शब्द में पदार्थ की बोधक शक्ति निसर्गज होती है, अर्थात् प्रत्येक शब्द विश्व के समस्त पदार्थों का प्रतिपादन करने में समर्थ है । घट शब्द जैसे कलश का वाचक है, वैसे ही वह वस्त्र, पुस्तक, टोपी आदि का भी वाचक हो सकता है, किन्तु मनुष्य ने शब्द की इस वाचक शक्ति को संकेत के द्वारा सीमित कर दिया है। अतः संकेत प्रणाली के द्वारा ही शब्द अपने वाच्य का प्रतिपादक होता है। नैय्यायिक शब्द की सहज अर्थ-प्रकाशन शक्ति को नहीं मानते । किन्तु, सहज बोधक शक्ति के अभाव में संकेत भी नहीं टिक सकेगा। संकेत के बिना शब्द अर्थ को तो बता सकेगा, किन्तु किस अर्थ को बताये, यह मालूम न हो पायेगा। अमुक शब्द अमुक अर्थ का वाचक है, यह निर्धारण संकेत के द्वारा होगा, किन्तु उसमें अर्थावबोधन की शक्ति तो पहले से चाहिए। संकेत एक रूढि-भर है । वह एक प्रणाली है। उसमें व्यापकत्व नहीं है। फिर भी, वाचक और वाच्य का सम्बन्ध बनाने में संकेत एक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। शब्द की अर्थावबोधन की व्यापक सामर्थ्य को यदि संकेत-द्वारा नियत न किया गया तो वह वक्ता के अभीष्ट अर्थ का प्रतिपादक न होकर, श्रोता की इच्छानुसार किसी भी अर्थ का वाचक बन जायेगा। इस प्रकार शब्द प्रयोग का उद्देश्य ही नष्ट १. जैन दर्शन, मनन और मीमांसा, पृ. 181. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003641
Book TitleBrahmi Vishwa ki Mool Lipi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsagar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1975
Total Pages156
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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