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है। ये दोनों ही शब्द स्पष्ट रूप से जैन परम्परा के हैं और वहाँ से ही चले। बहीखातों का सम्बन्ध अंकलिपि से है। बीच-बीच में अक्षर-लिपि का भी प्रयोग करना पड़ता है। बहीखातों में लोगों के खाते आज भी वर्णानुक्रम से ही डालने का रिवाज है । बारहखड़ी के वर्णों के आधार पर जैन आचार्यों ने बड़े-बड़े आध्यात्मिक ग्रन्थों का निर्माण किया था। अ से ह तक के वर्गों में से एक-एक को लेकर श्लोकों की सतत रचना करते जाना जैन आचार्यों की अपनी शैली थी। मैंने जयपुर के भण्डारों में पं० दौलतराम कासलीवाल का एक बृहत् काय हस्तलिखित ग्रन्थ---'अध्यात्म बारहखड़ी' देखा था। इस ग्रन्थ में बारहखड़ी के एक-एक वर्ण को लेकर अनेकानेक आध्यात्म परक पद्यों की रचना की गई है। यह हिन्दी का एक सरस ग्रन्थ है। ऐसे-ही-ऐसे अनेक ग्रन्थ हैं, जो अपने हस्तलिखित रूप में भण्डारों में पड़े हैं। उनका सम्पादन और प्रकाशन होना ही चाहिए । तात्पर्य यह है कि जैन परम्परा अपने प्राचीन काल से ही ब्राह्मीलिपि और वर्णमातृका की परम भक्त रही है। उसके अंग-प्रत्यंग में इसके उद्धरण बिखरे हुए हैं। बात प्रामाणिक है। वर्ण और अक्षरों का जैसा सैद्धान्तिक, तात्त्विक और भाषा वैज्ञानिक विवेचन जैन ग्रन्थों में उपलब्ध होता है, अन्यत्र नहीं। वर्णमातृका के चरणों में जैन मनीषियों की यह विनम्र श्रद्धाञ्जलि ही है ।। ___जैनाचार्यों ने शब्दातीत की स्थिति, अचिंतन की भूमिका और निर्विचार की कोटि तक पहुँचने को निर्विकल्प तक पहुँचना कहा है। इसे वे मौन की सही स्थिति मानते हैं और इसे ही वाक्सवर अथवा वाक्संयम कहते हैं। किन्तु वे एक दूसरी बात और कहते हैं कि जो व्यक्ति वचन-शून्य है, वह निर्वचन तक नहीं पहुँच सकता। इसी प्रकार शब्द-शून्य शब्दातीत तक, वाक-शून्य निर्वाक् तक, चिन्तन शून्य अचिंतन तक और विचार रहित निर्विचार तक पहुँचने में असमर्थ है । इस प्रकार वे शब्द, वाक्, चिन्तन और विचार को भी समरूप से महत्त्वपूर्ण मानते हैं। वर्णों से शब्द बनते हैं और शब्दों से वाक्य, वाक् या वचन । भाषा वर्गणा और शब्द पर जैन-ग्रन्थों में गहराई से विचार किया गया है।
जैन दार्शनिकों के अनुसार शब्द पौद्गलिक है, आकाशीय नहीं, जैसा कि कणाद आदि कतिपय नैय्यायिक मानते हैं । सांख्यदर्शन उसे आकाश का जनक कहता है। मीमांसक उसे नित्य मानते हैं, आकाश की भाँति उसकी सर्वत्र, सवदा सत्ता है, जब व्यञ्जक निमित्त मिलते हैं, तब वह हमारे श्रवण में आता है, अन्यथा नहीं। भर्तृहरि के अनुसार समस्त विश्व शब्दमय है । जैनाचार्य उसे भाषा वर्गणा के पुद्गलों का पर्याय कहते हैं। पुद्गल द्रव्य मूर्तिक होता है, अतः शब्द भी मूत्तिक है। रूप, रस, गंध और स्पर्श-ये सभी पुद्गल धर्म उसमें विद्यमान हैं।
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