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बिना इस स्नेह के सम्भव नहीं है । निष्ठा चाहिए, कोरा श्रम व्यर्थ है। मुझे जहाँ से निष्ठा मिली, उन्हीं चरणों में यह ग्रन्थ समर्पित है ।
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मैं उन आचार्यों, सूरियों और ग्रन्थकारों का भी हृदय से कृतज्ञ हूँ, जिनकी बौद्धिक सम्पत्ति मुझे विरासत के रूप में मिली। उनकी जलाई ज्योति न होती तो मैं कुछ देख ही न पाता । वीर निर्वाण ग्रन्थ प्रकाशन समिति, इंदौर, भाई बाबूलालजी पाटौदी और डा. नेमीचन्द जैन के लिए क्या लिखूं, वे अपने ही हैं । उनके पत्रों से मुझे उत्साह मिला है और मैं उमंगित मन से इस ग्रन्थ को पूरा कर सका हूँ । उनके प्रति आभारी हूँ। श्री माणिकचन्द जी पाण्या के स्नेह से ही मैं ग्रन्थप्रकाशन के अन्तिम क्षणों में इन्दौर पहुँच सका, सुविधा - पूर्वक ग्रन्थ देख सका, उनका कृतज्ञ हूँ -- अतीव कृतज्ञ ।
मैंने जो कुछ लिखा है, बम्भी देवी के चरणों में लघु विनत श्रद्धाञ्जलि है । यदि विद्वानों को रुचिकर हुई, तो मैं अपने को कृतार्थ समझंगा ।
श्रुत पञ्चमी वी. नि. सं. २५०१
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- डॉ. प्रेमसागर जैन अध्यक्ष एवं रीडर हिन्दी विभाग
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