________________
११
थे । अतः उनका आदान-प्रदान भी अगर हुआ, तो वह घर के भीतर का था । उसे एक का दूसरे पर प्रभाव नहीं माना जा सकता ।
प्रभावक अधिक सशक्त होता है अपेक्षाकृत प्रभाव्य के । उसमें कुछ ऐसी ऊर्जा, ऐसी गरिमा और ऐसी प्रदीप्ति होती है, जिससे प्रभाव की किरणें फूटती हैं और आस-पास का वातावरण प्रदीप्त हुए बिना नहीं रहता । वह उसके रंग में रंग जाता है । इस सब को आज की भाषा में वैज्ञानिक कहा जा सकता है । ब्राह्मी लिपि पूर्ण रूप से वैज्ञानिक है । उसमें प्रत्येक ध्वनि के लिए निश्चित चिह्न हैं । घोष, अघोष, अल्पप्राण, महाप्राण और अनुनासिक - सभी प्रकार की ध्वनियों के लिए लिपि - चिह्न निर्धारित हैं । ध्वनि तथा उसके प्रतीक चिह्न के उच्चारण में यत्कि - ञ्चित् भी अन्तर नहीं है । इससे स्पष्ट है कि इस लिपि के निर्माता भाषा शास्त्र और ध्वनि शास्त्र के प्रकाण्ड पण्डित थे । इस सन्दर्भ में डॉ. वासुदेव उपाध्याय का एक कथन दृष्टव्य है, "यह व्यक्त करना अत्यावश्यक है कि वैज्ञानिक रूप में ब्राह्मी में प्रत्येक अक्षर ध्वन्यात्मक चिह्न है । लिखने तथा बोलने में समता है, यानी जो लिखते हैं, उसी के समान उच्चारण भी करते हैं। इसमें स्वर और व्यञ्जन के चौंसठ चिह्न हैं । ह्रस्व तथा दीर्घ के पृथक्-पृथक् चिह्न वर्तमान हैं तथा मध्य में स्थित चिह्न से स्वर - व्यञ्जन का मेल होता है । अ सभी व्यञ्जनों में निहित तथा अन्तर्वर्त्ती है। इस प्रकार ब्राह्मी वैज्ञानिक लिपि है, जिसमें एक क्रम है। इन सबल प्रमाणों के सम्मुख सेमेटिक जैसी अनियमित और अवैज्ञानिक लिपि से ब्राह्मी की उत्पत्ति कैसे मानी जा मानी जा सकती है ।" सेमेटिक और आरमइक में सब-सेबड़ी कमी है कि उनमें ध्वनि के अनुरूप अक्षर नहीं हैं । दीर्घस्वर का नितांत अभाव है । कहाँ वह और कहाँ ब्राह्मी । इस परिप्रेक्ष्य में ब्राह्मी प्रभावक और सामी प्रभाव्य हो सकती है।
जैन आचार्यों ने 'अ' वर्ण का " अकारं चन्द्रकान्ताभं सर्वज्ञं सर्वहितंकरम्” कह कर जैसा महत्त्व प्रतिपादित किया है, अन्यत्र देखने को नहीं मिलता । उन्होंने उसे पुराण- पुरुषोत्तम 'आदि भगवान्' के समान कहा है और इसे अपने बीजमन्त्र का आदि अक्षर कह कर दिव्य शक्ति का प्रतीक माना है । इसके उच्चारण के साथ जो चित्र मन में उभरता है, उससे बीजमन्त्र शक्ति सम्पन्न बन पाता है । जैन आचार्यों ने वर्णमातृका के इस आदि अक्षर 'अ', मध्य अक्षर 'र', अन्तिम अक्षर 'ह' और बिन्दु तथा नाद से जिस 'अर्हम्' बीजमन्त्र की रचना की है, वह परमात्म रूप है, परमसत्ता का प्रतीक है । उसमें पंचपरमेष्ठी का निवास है । वह नवकार मन्त्र के समूचे व्यक्तित्त्व को व्याप्त किये हुए है । मन्त्रों की रचना वर्णों
१. डॉ. वासुदेव उपाध्याय, 'प्राचीन भारतीय अभिलेखों का अध्ययन', पृष्ठ 250.
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org