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से होती है। किन्तु यह मन्त्र समूची वर्णमाला का संक्षिप्त रूप तो है ही, योगियों के ध्यान का अनुभूत तत्त्व भी है। वह एक ओर द्रव्य लिपि को उजागर करता है, तो दूसरी ओर भावलिपि को भी केन्द्रित करता है। इसी कारण वह बीजमन्त्र है । रामसेनाचार्य-प्रणीत तत्त्वानुशासन में लिखा है, “आदौ मध्येऽवसाने यद्वाङमयं व्याप्य तिष्ठति । हृदि ज्योतिष्मदुद्गच्छन्नामध्येयं तदर्हताम् ?"१ । इसका अर्थ है कि – “अपने आदि, मध्य और अन्त में (प्रयुक्त अ-र-ह अक्षरों-द्वारा) जो वाङमय को-वाणी या वर्णमाला को व्याप्त करता है, वह अर्हन्तों का वाचक 'अहम्' पद है। वह हृदय में ऊँची उटती हुई ज्योति के रूप में नामध्येय है।” सहस्रसहस्र योगियों ने इस अक्षर ब्रह्म को अपने हृदय-स्थल में ऊर्ध्व-ऊर्ध्व गमन करती ज्योति के रूप में ध्यान का विषय बनाया है। उसको प्रणाम करते हुए एक आचार्य ने लिखा,
"अहमित्यक्षरब्रह्मवाचकं परमेष्ठिन: ।
सिद्धचक्रस्य सद्बीजं सर्वतः प्रणमाम्यहम् ॥"२ अर्थ-परमेष्ठी के वाचक 'अहम्' इति अक्षरब्रह्म को सिद्धचक्र का सद्बीज भी बतलाया गया है। मैं उसे हर प्रकार से प्रणाम करता हूँ।
अहम् परमब्रह्म का वाचक है । इसमें 'अ' अक्षर अमृतमूर्ति के रूप में स्थित सुख का प्रतीक है। स्फुरायमान रेफ अविकल रत्नत्रय रूप है, अर्थात् सम्यरदर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र की प्रतिमूत्ति है । 'ह' अक्षर मोह-युक्त समूचे पाप-समूह के हंता रूप में प्रतिष्ठित है, अर्थात् 'ह' से समृचे पाप विनष्ट हो जाते हैं । इस प्रकार अभिन्नाक्षर पद के रूप में यह बीजाक्षर स्मरणीय है । इस पद के अ और ह अक्षरों के मध्य में वर्णमाला के शेष सब अक्षर वास करते हैं। और इसी से मुनियों ने इसे अनध शब्दब्रह्मात्मक बताया है। इसमें बिन्दु और नाद अर्धचन्द्रकला से युक्त सकिरण ज्योति पद के द्योतक हैं और 'म' अन्तर-ध्वनि को अभिव्यक्त करने वाला है। यह पूरा पद परंब्रह्म-सिद्ध परमात्मा के ध्यान की अनुभूति कराता है। अर्हम् के महत्त्व को योगागास्त्र में रहस्यमय निरूपित किया गया है। अहम् का यह विवेचन कुमारकवि के आत्मप्रबोध में मिलता है। उनके मूल श्लोक इस प्रकार हैं--
"अकारोऽयं साक्षादमृतमयमूत्तिः सुखयति । स्फुरद्रेको रत्नत्रयमविकलं संकलयति ॥ समोहं हंकारो दुरितनिवहं हंति सहसा ।
स्मरेदेवं बीजाक्षरमभिन्नाक्षर पदम् ॥११८॥ १. तत्त्वानुशासन, जुगलकिशोर मुख्तार सम्पादित, वीर सेवा मन्दिर ट्रस्ट प्रकाशन, 1963
श्लोक 101, पृष्ठ 100. २. देखिए वही, पृष्ठ 100.
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