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ने महावीर के तीर्थंकाल को पश्चिम के अरस्तू और चीन के शुइन-त्सू के सिद्धान्तों का मध्यस्रोत तथा पायथेगोरस और कन्फ्यूशस की विचार - कान्ति का मिलनस्थल माना है ।" यह बात विचारणीय है । ऐसा प्रतीत होता है कि महावीर के सिद्धान्त उनके तीर्थकाल में पूर्व से पश्चिम तक प्रसृत हुए । अवश्य ही श्रमण साधुओं का यायावर विशेषण इस प्रसार का साधक बना होगा ।
व्यापारी आता है व्यापार करने, भाषा अथवा अक्षर ज्ञान देने नहीं । उसका मूल उद्देश्य व्यापार है । उसे सिद्ध करने के लिए भाषा और कुछ अक्षरों का आदान-प्रदान हो जाता है, तो वह स्वाभाविक ही है । उसमें योगदान दोनों तरफ का समान होता है, उसे एकतरफा मान लेना नितांत असंगत है । किन्तु, धर्म-प्रचार एकतरफा ही होता है। श्रमण साधुओं के पास अपने सिद्धान्त थे, अपनी भाषा और अपनी लिपि । दूसरों को ज्ञान प्रदान करने में निपुण होने ही के कारण उन्हें उपाध्याय और आचार्य कहा जाता था। तो, बात यही अधिक जंचती है कि इन यायावर साधुओं ने ज्ञान के साथ-साथ लिपिज्ञान भी उन-उन देशों को दिया, जहाँ वे गये । शायद इसी कारण महापण्डित राहुल सांकृत्यायन ने भले ही इन साधुओं को 'घुमक्कड़' शब्द से सम्बोधित किया हो, किन्तु उन के भिन्न-भिन्न देशों में जाने और ज्ञान, भाषा तथा लिपि प्रदान करने की बात स्वीकार की है। पहल भारत ने की, यह असंदिग्ध रूप से सत्य है ।
सेमेटिक ( फोनेशिया) और आरमेनियन ( दक्षिण अरबी) दोनों पश्चिमी एशिया से सम्बन्धित हैं । किसी समय यह भू-भाग ईरानी साम्राज्य के अन्तर्गत था। डॉ. हीरालाल जैन का अभिमत है कि प्राचीन काल में भारत और ईरानी जनसमूह एक परिवार था और वह एक-सी बोली बोलता था । उन्होंने 'जसहरचरिउ' की भूमिका में लिखा है, “उससे ( वेदों से ) पुराने शब्द रूप उस काल के मिलते हैं, जब भारतीय और ईरानी जनसमाज पृथक् बोली tear था । यह बात वैदिक और प्राचीन ईरानी और पारसियों के प्राचीन धर्मग्रन्थ अवेस्ता की भाषाओं के मिलान से स्पष्ट हो जाती है। यही नहीं, पश्चिम एशिया के भिन्न-भिन्न भागों से कुछ ऐसे लेख भी मिले हैं, जिनसे पता चलता है कि उस काल में अपने आज के अनेक सुप्रचलित नामों व शब्दों का हिन्द-ईरानी समाज कैसा उच्चारण करता था। जिन देवों को हम आज सूर्य, इन्द्र और वरुण कहते हैं, उन्हें हिन्द- ईरानी समूह सुरिअस्, इन्तर और उरुवन् कहते थे ।" इस प्रकार भारत और पश्चिमी दो पृथक् जनसमूह नहीं
१. भिक्षु अभिनन्दनग्रन्थ, लक्ष्मीचन्द जैन का निबन्ध 'भारतीय लोकोत्तर गणित-विज्ञान के शोध पथ', पृष्ठ 225.
२. जसहरचरिउ, द्वि. सं., हीरालाल जैन सम्पादित, भारतीय ज्ञानपीठ, 1972, प्रस्तावनाडॉ. हीरालाल जैन लिखित, पृष्ठ 29-30.
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