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________________ 'कन्नड़ साहित्य के नवीन इतिहास' (पृष्ठ ६) में स्पष्ट रूप से लिखा है कि ब्राह्मी लिपि की वही शाखा, जिससे कन्नड़ लिपि निकली है, दक्षिण में सिंहल तथा पूर्व में सुदूर जावा तक जा पहुँची। तमिल लिपि ब्राह्मी की दूसरी शाखा से निकली, अतः कन्नड़ तथा तेलुगु लिपि से भिन्न है। उनका यह भी कथन है कि-यों तो ब्राह्मी लिपि से निकली होने के कारण भारत की तथा एशिया की अन्य सभी लिपियों में कुछ समानताएँ हैं। काव्यतीर्थजी ने एशिया तक की बात तो की, किन्तु न जाने क्यों विश्व की बात न कह सके, तो विश्व वालों ने ठीक उलटा कहा कि ब्राह्मी सामी लिपि से निकली है। उनके अपने तर्क हैं, और सोचने की अपनी दिशा है। उनका कथन है कि सेमेटिक और आरमेनियन लोगों ने सब-से-पहले भारत से व्यापारिक सम्बन्ध स्थापित किये और उनके माध्यम से ही भारतीयों को अक्षरज्ञान हुआ। दूसरी ओर जैन ग्रन्थों की अकाट्य साक्षी है कि यायावर श्रमण मुनि भाषा और लिपि को एक युग से दूसरे युग तक और एक देश से दूसरे देश तक पहुँचाते रहे हैं। श्री सत्येकेतु विद्यालंकार ने भारत का इतिहास' ग्रन्थ में पृष्ठ ११८ पर लिखा है, “सम्प्रति जैन धर्म का अनुयायी था। उसने जैन धर्म के प्रचार के लिए बहुत उद्योग किया और देश -विदेश में जैन साधुओं को धर्मप्रचार के लिए भेजा।" बौद्ध महावंश के "तं दिस्वान पलायंत्त निगण्ठो गिरि नाम को ॥२॥ अ. ३३" से स्पष्ट है कि सम्राट सम्प्रति के समय में दिगम्बर मुनियों ने सीलोन में धर्मप्रचार किया था। पं. सुन्दरलाल ने हजरत ईसा और ईसाई धर्म' में लिखा है, “पश्चिमी एशिया, यूनान, मिश्र और इथियोपिया के पहाड़ों और जंगलों में, उन दिनों हजारों जैन संत महात्मा जा-जा कर जगह-जगह बसे हुए थे, ये लोग बिलकुल साधुओं की तरह रहते और अपने त्याग और अपनी विद्या के लिए मशहूर थे ।"१ यहाँ तक ही नहीं, हजरत ईसा के भारत आने और जन साधुओं से सम्पर्क की बात अत्यधिक प्रसिद्ध हो गई है। सब-से-पहले रूसी पर्यटक नोटोविच ने तिब्बत के हिमिन मठ से प्राप्त पालिभाषा के एक ग्रन्थ के आधार पर लिखा कि-ईसा भारत तथा मोट देश आकर अज्ञातवास में रहे और उन्होंने जैन साधुओं के साथ साक्षात्कार किया।२ अब आचार्य रजनीश ने ‘महावीर मेरी दृष्टि में' शीर्षक ग्रन्थ में इस बात को नाना प्रामाणिक युक्ति संगत तर्को से सिद्ध किया है। श्री अक्षयकुमार जी के एक धारावाहिक निबन्ध से इसकी महत्त्वपूर्ण पुष्टि हुई है। इसके अतिरिक्त, ईसा से भी पूर्व ३२६ में सम्राट सिकन्दर यहाँ से एक जैन साधु को अपने साथ यूनान ले गया था, यह एक इतिहास-प्रसिद्ध बात है। श्री लक्ष्मीचन्द्र जैन १. पं. सुन्दरलाल, 'हजरत ईसा और ईसाई धर्म,' पृष्ठ 22. २. हिन्दी विश्वकोष, तृ. भा. , श्री नगेन्द्रनाथ वसु सम्पादित, पृष्ठ 128. 3. 'The life of the Budha, by E. I. Thomas, 1927, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003641
Book TitleBrahmi Vishwa ki Mool Lipi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsagar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1975
Total Pages156
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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