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________________ है । सब कुछ वंशानुरूप था। इस वंश की विशेषता थी कि जिसने जो साधा तद्रूप हो उठा। अर्थात् दोनों एक हो गये। संज्ञा-भेद मिट गया। साधना साधक से कृतार्थ हुई और साधक साधना सिद्ध कर गौरवान्वित हुआ। दोनों एकदूसरे के पूरक थे, अब द्वैध मिट गया। दीपक और बत्ती का पृथक्त्व ही चुक गया। बच गई केवल लौ-एक प्रकाश । आज भी उससे सब प्रकाशवन्त हैं। उसका नाम है-ब्राह्मी लिपि । ब्राह्मी के दूसरे भाई थे, बाहुबली । बलिष्ट लम्बी काया, आजानुबाहु, वृषभस्कन्ध और कामदेव-से सुन्दर । भरत-बाहुबलि-युद्ध प्रसिद्ध है। जीत कर भी जिसने अपने अग्रज भरत को ही प्रतिष्ठा दी और स्वयं दीक्षा ले तप साधा। उनके नाम पर विपुल साहित्य रचा गया, तो उनकी प्रतिमाएँ भारतीय संस्कृति और कला की गौरवपूर्ण थाती हैं। उन बाहुबलि को ऋषभदेव ने पूरा पश्चिमोतर प्रदेश बँटवारे में दिया था। उसमें पंजाब, सिंघ, काश्मीर, बिलूचिस्तान, अफगानिस्तान आदि आज के देश शामिल थे । ब्राह्मी का अधिकांश जीवन यहाँ ही व्यतीत हुआ। कल्पसूत्र १, अधि. ७ क्षण में लिखा मिलता है कि--“सा च बाहुबलिने भगवता दत्ता प्रव्रजिता प्रवर्तिनी भत्त्वा चतुरशीतिपूर्वं शतसहस्त्राणि सर्वाऽयु : पालयित्वा सिद्धा।" ऐसे पर्याप्त उल्लेख मिलते हैं कि ब्राह्मी दीक्षा लेकर साध्वी हो गई थी। साध्वी ही नहीं, उनकी अग्रणी बनी थी। उसने तप तपा था। पश्चिमी भूभाग ही उसकी तपोभूमि थी। गद्दियारों के केन्द्रस्थान भरमौर से एक मील ऊँचाई पर काष्ठ का बना एक देवी-मन्दिर है । उसमें अधिष्ठित प्रतिमा ब्रह्माणी देवी की मानी जाती है । वहाँ के निवासियों का कथन है कि यह पूरा क्षेत्र उसी देवी का पूजा-क्षेत्र था। अब यह निश्चय हो गया है कि यह ब्रह्माणी देवी और कोई नहीं, ऋषभदेव की पुत्री ब्राह्मी ही थी। यदि काष्ठ मन्दिर के नीचे खुदाई हो तो बहुत कुछ ऐसा मिल सकता है, जिससे वहाँ ऋषभदेव और बाहुबलि के समय से प्रवाहित श्रमणधारा की कड़ी सिन्धु घाटी के पुरातात्त्विक अवशेषों से जुड़ जायेगी। फिर भी वहाँ एक वेदी तो ऐसी मिली ही है, जिसकी पृष्पमय चित्रकारी को कनिधम ने पूर्णविश्वास और प्रामाणिकता के साथ जैन कहा है । ' सम्राट सिकन्दर ने ३२६ ई. पू., रावी के तट पर जैन साधुओं को देखा था, यह एक ऐतिहासिक तथ्य है, अनेक इतिहास ग्रन्थों में लिखा मिलता है। सिन्धुघाटी की सभ्यता श्रमण संस्कृति की प्रतीक है, इसे प्रसिद्ध पुरातत्वविद मानते हैं। तो वह पूरा क्षेत्र ही कभी श्रमणधारा का प्रतीक था और फिर भरमौर की देवी भी ब्राह्मी थी, ऐसा माना जा सकता है । 1. Cunningham, A. S. R. XIV, P. 112. 2. Kausambi D.D. An Introduction to the study of Indian History, Bombay, 1959, Page 180. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003641
Book TitleBrahmi Vishwa ki Mool Lipi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsagar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1975
Total Pages156
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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