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भी वीतरागी थे, संसार के बीच भी मोक्षगामी थे और वे आसक्तियों के घिराव में भी अनासक्त थे । उन्होंने एक ओर कर्म साधा तो दूसरी ओर अध्यात्म | वे सही अर्थों में पुरुष थे । पौरुष के धनी । इहलोक उनका था, परलोक भी उनका ही बना । वे भारत माँ के अमरपुत्र थे । काश, भारत के महाराजाओं ने उनका अनुकरण किया होता, तो राज्यतन्त्र भी प्रजातन्त्र होता और उनकी उज्ज्वल गाथायें स्वर्णाक्षरों में लिखी जातीं ।
ऋषभदेव ने अपने सभी पुत्रों को नाना कलाओं और विद्याओं में निष्णात बनाया। सभी योग्य बने । पौरुष तो जैसे साक्षात् हो उठा था । वे क्षत्रिय थे तो ‘त्राण सहः' उनका जीवन था । वे कर्म और अध्यात्म के सन्धिस्थल पर तेज-पुञ्जसे दमकते रहे । 'प्रबुद्धतत्त्वः' ही उनका जीवनलक्ष्य था, जिसे उन्होंने वीरता पूर्वक प्राप्त किया । ऋषभदेव की पुत्रियाँ भी सौ-सौ पुत्रों से अधिक पूतशीला थीं । शील और सौन्दर्य तो जैसे उनमें साक्षात् ही हो उठा था । वे शिवरूपा थीं । उचित वय में भगवान् ने उन्हें भी शिक्षित बनाया । ब्राह्मी बड़ी थी और सुन्दरी छोटी । दोनों के अंगों से स्वर्णरेणु के समान कांति विकीर्ण होती थी । जगद्गुरु ऋषभदेव ने दोनों के विनय, शील आदि को देखकर विचार किया कि यह समय इनके विद्याग्रहण का है, अतः उन्होंने दोनों को सिद्धमातृका के साथ-साथ अक्षर, गणित, चित्र, संगीत आदि का ज्ञान कराया । भगवज्जिनसेनाचार्य के महापुराण' में लिखा है कि ऋषभदेव ने दाहिने हाथ से लिपि और बायें हाथ से अंकों का लिखना सिखाया । यही कारण है कि लिपि बायें से दायीं ओर और अंक दायें से बायीं ओर चलते हैं। भगवती सूत्र के एक प्रकरण में लिखा है कि भगवान् ने दाहिने हाथ से ब्राह्मी को लिपिज्ञान दिया, अतः उसी के नाम पर लिपि को भी ब्राह्मी कहने लगे और 'ब्राह्मी लिपि' नाम प्रचलित हो गया। इससे सिद्ध है कि ब्राह्मी और लिपि एकरूप हो गई थी। दोनों में तादात्म्य हो गया था । यह तभी सम्भव है, जब ब्राह्मी ने लिपि के साथ एकनिष्ठता साधी हो। एकनिष्ठता, एकाग्रता और योग पर्यायवाची हैं । अर्थात् ब्राह्मी साधिका थी, जिसने लिपि पर ध्यान केन्द्रित किया था । सच तो यह है कि इक्ष्वाकुवंश साधकों का था, योगियों का था, महामानवों का था, जिन्होंने जगत को एक नये साँचे में ढाला, तो अध्यात्म के पुरस्कर्त्ता भी बने । उसकी बेटियाँ भी साधना की प्रतीक थीं। जिस ब्राह्मी के पितामह नाभि के नाम पर, यह देश अजनाभवर्ष और ज्येष्ठ भ्राता भरत के नाम पर भारतवर्ष कहलाया हो तथा जिसके पिता श्रमणधारा के प्रवर्तक बने हों, यदि उसके नाम पर लिपि भी ब्राह्मी संज्ञा से अभिहित हो उठी हो, तो आश्चर्य क्या
१. महापुराण 16 / 97, 102.
२. अभिधान राजेन्द्रकोश, भाग 2, पृष्ठ 1126.
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