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________________ में कहा गया है कि ऋषभदेव ने वातरशना श्रमणमुनियों के धर्मों को प्रकट करने की इच्छा से अवतार लिया था । " १ ऋषभदेव ने यदि एक ओर कर्म और श्रम का उपदेश दिया तो दूसरी ओर “प्रबुद्धतत्त्वः पुनरद्भुतोदयो ममत्त्वतो निर्विविदे विदाम्बरः ।" का दृष्टान्त भी प्रस्तुत किया। वे योगिराज बने । उन्होंने स्वयं अपने कर्मों को अपनी समाधि की अग्नि से भस्म कर दिया। उन्हें ब्रह्म संज्ञा से अभिहित किया जाने लगा । उनका क्षत्रिय शब्द सार्थक था । उन्होंने जैसी वीरता लौकिक कर्म में दिखाई, वैसी ही आध्यात्मिक क्षेत्र में भी । वे सागरवाससा वसुधा वधू के पति थे तो उन्होंने मोक्षलक्ष्मी का भी वरण किया था। उन्होंने इस भूमि पर जीना सिखाया, तो मोक्ष तक पहुँचने का मार्ग भी उन्होंने ही दर्शाया था । वे इस पृथ्वी के अधिराट थे तो कैवल्यपति भी वे ही थे । ऋषभदेव के सौ पुत्र थे और दो पुत्रियाँ -ब्राह्मी और सुन्दरी । भरत को राज्यश्री सौंप कर ऋषभदेव प्रव्रजित हो गये । चलते समय उन्होंने कहा कि-“हमारा यह पुत्र प्रजाओं के पालन-पोषण में समर्थ प्रमाणित होगा ।" वह सिद्ध हुआ, यहाँ तक कि भरत शब्द 'प्रजाओं के भरण-पोषण' अर्थ में रूढ़ हो गया और 'भरणात् पोषणाच्च कहा 'जाने लगा | महात्मा तुलसीदास ने तो उस व्यक्ति को भरत के समान कहा, जो संसार का, सुचारु ढंग से 'भरण-पोषण' करता है । उनका कथन है, "विस्व भरणपोषण कर जोई । ताकर नाम भरत अस होई ।' की चिरस्मृति में इस देश का नाम भारतवर्ष पड़ा । अर्थात् नाभि के पौत्र भरत उनसे भी अधिक प्रतापवान थे। तभी तो 'अजनाभवर्ष' भारतवर्ष के नाम से प्रसिद्ध हुआ । ३ भरत भरत चक्रवर्ती थे, उन्होंने दिग्विजय कर षट्खण्डों को जीता था। जगह-जगह उनके विजयध्वज फहराते थे । वृषभाचल पर बहत्तर जिन चैत्य उनकी विजय के अमरचिह्न थे। उनके उत्तुंग शिखर; जैसे भरत के ही मानस्तम्भ थे । गन्धर्व - बालाएँ उनके गुण गाती थीं, इन्द्रसभा के नृत्य और लय उन्हीं की विजयतानों से ओत-प्रोत थे । वेत्रवती के तट पर सिद्धवधुएँ उन्हीं का वीणावादन करती थीं। इस अपार वैभव, यश और गरिमा से घिरे भरत वैरागी थे - नितांत वैरागी । उनका मन अनासक्त था । यही कारण था कि दीक्षा के लिए अंगरखे की गाँठ खोलते हो उन्हें केवलज्ञान हों गया। वे राजा होते हुए भी मुनि थे, रागों के मध्य १. भारतीय संस्कृति का विकास औपनिषद् धारा, पृष्ठ 180. २. मत्स्यपुराण 114/5-6 ३. रामचरितमानस 1/197/7 Jain Education International : For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003641
Book TitleBrahmi Vishwa ki Mool Lipi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsagar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1975
Total Pages156
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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