SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 14
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अर्थों में बने तो उसकी अगण्य समस्याएँ स्वतः हल हो जायेंगी। क्या अरब का तेल और भारत का इक्षु समकोटि में नहीं आ सकते । यह भारतवासियों पर निर्भर करता है। ऋषभदेव ने केवल कृषि ही नहीं, असि, मषी, विद्या, वाणिज्य और शिल्प की भी शिक्षा दी । ये षड् जीवनोपयोगी उपाय थे, जिनमें उन्होंने अपनी प्रजा को निपुण बनाया। इतना ही नहीं, कलाओं के तो वे जनक ही थे । उन्होंने ७२ कलाओं का ज्ञान प्रदान किया। उनमें एक लेखन कला भी थी । मषी जीवनोपयोगी उपायों में पहले ही से मौजूद थी। अर्थात् लेख और मषी दोनों की शिक्षा ऋषभदेव ने दी । दोनों का संयोग लिपि की ओर इशारा करता है। यह सहस्रों वर्ष पूर्व की बात है, जबकि पाश्चात्य देशों ने ठीक से रहना और कपड़े पहनना भी नहीं सीखा था। भोगभूमि के बाद, सब-से-पहला यही देश था, जिसने जीवनोपयोगी उपायों को सीखा और साधा । शिक्षक थे ऋषभदेव, जिनका उल्लेख वेदों से लेकर श्रीमद्भागवत् तक अविच्छिन्न रूप से मिलता है। डॉ. पी. सी. राय चौधरी का अभिमत है कि भगवान् ऋषभदेव ने पाषाण युग के अन्त में और कृषि युग के प्रारम्भ में जैनधर्म का प्रचार मगध में किया। शायद डॉ. चौधरी को यह विदित नहीं था कि कृषि के आविष्का ऋषभदेव ही थे। __ श्रमणधारा के ग्रन्थों में ऋषभदेव की जैसी प्रशंसा मिलती है, उससे कहीं अधिक वैदिक ग्रन्थों में । वे दोनों में समरूप से आदरणीय बने । श्रमण और वैदिक दोनों धाराएँ बहुत दूर तक एक-दूसरे की पूरक रहीं । मुनियों की प्रशंसा उसी प्रकार हुई, जैसे कि ऋषियों की । श्रीमद्भागवत में "नानायोगचर्याचरणो भगवान् कैवल्यपतिः ऋषभः ।" 3 लिखा मिलता है तो श्रीमद्भगवत् गीता में भी, “दु:खेध्वनुद्विग्नमनाः सुखेषु विगतस्पहः । वीतरागमयाक्रोधः स्थितिर्धी मुनिरुच्यते ॥"" लिखा गया। इस सन्दर्भ में डॉ. मंगलदेव शास्त्री का एक कथन दृष्टव्य है, "ऋग्वेद के एक सूक्त (१०/१३६) में मुनियों का अनोखा वर्णन मिलता है। उनको वातरशनाः (दिगम्बर), पिशंगा, बसतेमला और प्रकीर्णकेशी इत्यादि कहा गया है। यह वर्णन श्रीमद्भागवत् के पंचम स्कन्ध में दिये हुए जैनियों के आदि तीर्थंकर ऋषभदेव के वर्णन से अत्यन्त समानता रखता है। वहाँ स्पष्ट शब्दों १. देखिए-ऋग्वेद 4/6/26/4, अथर्ववेद-16वां काण्ड-प्रजापतिसूक्त, महाभारत-शान्ति पर्व 1 2164/ 20, वायुपुराण-पूर्वार्द्ध 30/50-51, ब्रह्माण्डपुराण 14/49, लिंगपुराण 47/29, श्रीमद्भागवत्-5/4/2, 5/4/14, 1/17/22/5/5/19 आदि. 2. Jainism in Bihar P. 7. L. P. ३. श्रीमद्भागवत्, 5/6/24 ४. भगवद्गीता, 2/56 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003641
Book TitleBrahmi Vishwa ki Mool Lipi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsagar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1975
Total Pages156
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy