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________________ इस उपर्युक्त विवेचन से सिद्ध है कि भारत के पश्चिमोत्तर प्रदेश में ब्राह्मी का अधिवास था । वहाँ ही उसने साधना साधी, तप तपा, पूजी गई, लोक-ख्याति प्राप्त की । लोक ख्याति से स्पष्ट है कि उसने लोक-लोक को समझा था । शायद इसी कारण उसने लिपि के १८ ढंग बनाये और उन्हें यथा-स्थान प्रचलित किया । अठारह लिपियों का सबसे पुराना सूत्र जैन ग्रन्थों में ही उपलब्ध होता है । मैंने प्रासंगिक रूप से उनका विवेचन किया है। श्रमणधारा ने लोक -रुचि को सब-से-अधिक प्रश्रय दिया । ब्राह्मी ने जिन अठारह लिपियों का सृजन किया था, वे लोकानुरूप थीं । आगे चलकर वे ही भारत की अठारह भाषाओं का आधार बनीं । तीर्थंकर महावीर ने उन सब को अर्द्ध मागधी में संगर्भित किया था । 1 अर्द्धमागधी वह भाषा थी, जिसमें आधे शब्द मगध के और आधे शब्द अठारह भाषाओं के थे । यही वह भाषा थी, जिसे भारत के हरभाग के और हर जाति के लोग समझते थे । यही वह भाषा थी, जिसके माध्यम से श्रमण साधु जनमानस तक पहुँचते थे और उन्हें अपना बना लेते थे । भाषा के क्षेत्र में यह एक वैज्ञानिक, क्रान्ति थी और उसके जनक थे तीर्थंकर महावीर । तत्त्वार्थवृत्ति में लिखा है, “अर्द्ध भगवद्भाषाया मगधदेशभाषात्मकं अर्द्ध च सर्वदेशभाषात्मकम् ।" अठारह भाषाएँ 'सर्वदेशभाषात्मकम्' को प्रतीक ही थीं। यहाँ तक ही नहीं, एक स्थान पर तो 'सर्वनृभाषा और बहूश्च कुभाषा' के अन्तरनेष्ट होने की बात भी लिखी मिलती है । वह श्लोक है- " एकतयोऽपि च सर्वनृभाषा: सोऽन्तरनेष्ट बहूश्च कुभाषाः । अप्रतिमत्तिमपास्य च तत्त्वं बोधयति स्म जिनस्य महिम्ना ॥" म. पु. २३/७० आज भी भारत को ऐसी सार्वभौम भाषा की आवश्यकता है । वैसे श्रमणधारा अपने प्रारम्भ से ही लोक- रुचियों में प्रवाहित होती रही है। उसी का परिणाम थीं अठारह लिपियाँ और उनकी सूत्रधार थी ब्राह्मी । वह अर्द्धमागधी भाषा, जिसे सुर और असुर, आर्य और अनार्य, वनौकस और नागरिक सभी समझते थे, ब्राह्मी लिपि और उनके अष्टादश भेदों में लिखी जाती थी । अतः यह कहना कि भारतीयों को लिपिज्ञान ईसा से केवल पांच सौ वर्ष पूर्व हुआ, अनुचित है । १. देखिए पं. मन्हेद्रकुमार न्यायाचार्य सम्पादित तत्वार्थवृत्ति, प्रस्तावना. २. "भगवं च ण अद्धमागही ए भासाए धम्मं आइक्खइ । सा वि यणं अद्धमागही भासा भासिज्जमाणी तेसि सव्वेस आरियं -अणारियाणं दुप्पय चौप्पयमियपसुपक्खिसरी सिवाणं अप्पणी द्रियसिवसुहदाय भासताए परिणमड ।" समवायांगसूत्त 98 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003641
Book TitleBrahmi Vishwa ki Mool Lipi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsagar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1975
Total Pages156
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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