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________________ १२७ स्थान पर उन्होंने कहा है, "बहुरि कहीं अक्षरनिको अंकनि की सहनानी करि संख्या कहिए हैं। ताका सूत्र-कटपय पुरस्थवर्णं नवनव पञ्चाष्ट कल्पित : क्रमशः । स्वर-व्यञ्जन शून्यं संख्यामात्रो परिमाक्षरं त्याज्यम् । अर्थात् 6 m ख ग घ ङ च छ ज झ (ये नौ) Vir (ये नौ) ट १ प १ य ठ ड ढ ण त २ ३ ४ ५ ६ फ ब भ म २ ३ ४ ५ र ल व श ष # my m om थ द ध ७ ८ ९ (ये पाँच) स ह (ये आठ) ___ बहुरि अकारादि स्वर वा ञ वा न करि बिन्दी जाननी । वा अक्षर की मात्रा वा कोई ऊपर अक्षर होइ जाका प्रयोजन किच्छ ग्रहण न करना।"" तात्पर्यार्थ--तात्पर्य यह है कि अंक के स्थान पर कोई अक्षर दिया हो तो वहाँ व्यञ्जन का अर्थ तो उपर्युक्त प्रकार से १, २ जानना । जैसे कि ङ, ण, म, श इन सब का अर्थ ५ है और स्वरों का अर्थ बिन्दी जानना। इसी प्रकार कहीं ञ या न का प्रयोग हुआ तो वहाँ भी बिन्दी जानना। मात्रा तथा संयोगी अक्षरों को सर्वथा छोड़ देना। इस प्रकार अक्षर पर से अंक प्राप्त हो जायेगा। इससे स्पष्ट है कि अंक लिपि, ब्राह्मीलिपि (अक्षरात्मिका) से प्रभावित थी। अक्षर और अंकों का यह सहगमन आगे चलकर अध्यात्म और गणित के समन्वय का सूत्र बना। महावीर के तीर्थकाल में आदर्श को तौलने के लिए लौकिक गणित एक साधन के रूप में प्रयुक्त हुआ। उससे अनन्त और सलागा गणन मापा जाने लगा । आत्मा, अध्यात्म और जीव आदि की कोटियाँ और उनसे सम्बन्धित प्रक्रियाओं की रचना में लौकिक गणित की सहायता ली गई। यही कारण है कि जैनाचार्यों ने यदि एक ओर अध्यात्म की सूक्ष्म विवेचना की तो दूसरी ओर गणित का भी सूक्ष्म और सर्वाङ्ग विश्लेषण किया। वे यह कर सके, क्योंकि ऐसा उनके खुन में भिदा था। 'अक्षर' सम्राट ऋषभदेव के दायीं ओर था और 'अंक' बायीं ओर । दोनों एक पिता की सन्तानें । परस्परानुपेक्षी सम्बन्ध स्वाभाविक था । इसकी पुष्टि जैन प्राकृत और संस्कृत ग्रन्थों से होती है । १. अर्थ संदृष्टि, १/१३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003641
Book TitleBrahmi Vishwa ki Mool Lipi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsagar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1975
Total Pages156
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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