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विभाज्यता का खण्डन करने वाले जीनो के तर्क और मोशिंग (३७० ई. पू.) की बिन्दु की परिभाषा जैन प्राकृत ग्रन्थों में सुरक्षित मिलती है । इसके अतिरिक्त, “प्राकृत ग्रन्थों में अविभाग प्रतिच्छेद को इकाई लेकर यथार्थ अनन्तों का अल्पबहत्व संरचित किया गया है ।" वास्तविकता यह है कि गणित से सम्बन्धित हस्तलिपियों और शिला-लेखों की खोज अत्यावश्यक है। वे यहाँ थीं, यह सुनिश्चित है। आचार्यकल्प टोडरमलजी ने गोम्मटसार जीवकाण्ड और कर्मकाण्ड की टीकाओं में उनका प्रयोग किया है। टीकाएँ मूलग्रन्थ से जुड़ी होती हैं। उनमें खुलकर लिखने का अवसर कम ही मिल पाता है । इसी कारण शायद टोडरमलजी को 'अर्थ संदृष्टि' ग्रन्थ रचने की आवश्यकता प्रतीत हुई। इसमें उनकी संकलित की हुई समूची सामग्री का प्रयोग देखने को मिलता है। इसमें उन्होंने “ऋण-प्रतीक के लिए पाँच चिह्नों का प्रयोग और विभिन्न अर्थों में शून्य का प्रतीकबद्ध प्रयोग बतलाया है। इसमें प्रयुक्त कुछ प्रतीक गिरनार तथा अशोक काल से पूर्व के शिलालेखकालीन प्रतीत होते हैं ।"२ इससे सिद्ध होता है कि उन्होंने कुछ पुरातन शिलालेखों को भी देखा था, जो अब उपलब्ध नहीं हो रहे हैं।
गोम्मटसार जीवकाण्ड और त्रिलोकसार में गणित-विषयक १० (दस) प्रक्रियाओं का उल्लेख हुआ है-- १. अंकों की गति वामभाग से होती है, २. परिकर्माष्टक के नाम निर्देश, इ. संकलन व व्यकलन की प्रक्रियाएँ, ४. गुणकार व भागहार की प्रक्रियाएँ, ५. विभिन्न भागहारों का निर्देश, ६. वर्ग व वर्गमूल की प्रक्रिया, ७. घन व घनमूल की प्रक्रिया, ८. विरलनदेय घातोक की प्रक्रिया, ९. भिन्न कर्माष्टक ( Fraction ) की प्रक्रिया, १०. शून्य परिकर्माष्टक की प्रक्रिया ।3
गोम्मटसार जीवकाण्ड और अर्थसंदृष्टि में पदार्थों और अक्षरों से अंकों को जानने की विधि का उल्लेख मिलता है। 'अर्थ संदृष्टि' में टोडरमलजी ने लिखा है. "तहाँ कहीं पदार्थनि के नाम करि सहनानी है। जहाँ जिस पदार्थ का नाम लिखा होई तहाँ तिस पदार्थ की जितनी संख्या होइ तितनी संख्या जाननी। जैसे विधु-१ क्योंकि दृश्यमान चन्द्रमा एक है। निधि =९ क्योंकि निधियों का प्रमाण ९ है।'४ अक्षर से अंक की बात लिखते हुए एक दूसरे
१. भिक्षु अभिनन्दन ग्रन्थ, पृष्ठ २२३. २. वही, पृष्ठ २२४-२५. ३. जैनेन्द्र सिद्धान्तकोश, भाग २, पृष्ठ २१३-१४. ४. अर्थसंदृष्टि, १/१३.
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