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________________ १२५ महावीर-कालीन गणित के भारतीय इतिहास पर प्रकाश पड़ने की बात श्री लक्ष्मीचन्दजी जैन ने अपने निबन्ध 'भारतीय लोकोत्तर गणित के शोधपथ' में लिखी है। वर्द्धमान का तीर्थकाल एक स्रोत था, जिसका प्रवाह पूर्व में दूर तक गतिशील रहा तो पश्चिम में भी उसकी गति निर्बाध बही। वह एक मिलन था--केन्द्र स्थल । पश्चिम में अरस्तू (३८४-३२२ ई. पू.) ने आत्माओं के श्रेणि-सिद्धान्त की प्ररूपणा की तो पूर्व में-चीन में शुइन-त्सू (२९८-२३८ ई. पू.) ने भी ऐसा ही सिद्धान्त प्ररूपित किया और यही सिद्धान्त भारत में, जीवों के मार्गणा स्थान के रूप में मिलता है। पश्चिम से पूर्व तक की इन अवधारणाओं का मध्यस्रोत महावीर का तीर्थकाल' ही हो सकता है। इसी प्रकार भारत के एक ओर पायथेगोरस और दूसरी ओर कन्फ्यूशस की विचारक्रान्ति के मिलन-सूत्र भी महावीर ही थे। पायथेगोरस अहिंसा प्रेमी था और महान गणितज्ञ । उन्होंने जीव संख्या की निश्चलता के आधार पर जनता को मांसाहार की ओर से मोड़कर शाकाहारी बनाने का प्रयत्न किया था। चीन में यही बात कन्फ्यूशस-काल में मिलती है। दोनों में कोई अन्तर नहीं है। मिश्र में भी इसी युग में अहिंसक परम्पराओं का अनुसरण किया जाने लगा था। शायद अहिंसा-प्रेम ही पायथेगोरस को पूर्व की यात्रा में संलग्न बना सका था।' महावीर का तीर्थ-काल अनूठा था, मूल्यवान था और विश्व की विचारक्रान्ति का एक ठोस आधार। गणित के सन्दर्भ में जैन प्राकृत और संस्कृत ग्रन्थ प्राचीन तो हैं ही, सूक्ष्मता की दृष्टि से भी अवलोकनीय हैं। उनमें धवला, अनुयोग द्वार, चरित पाहुड़, तिलोयपण्णत्ति, जम्बूदीवपण्णत्ति, गोम्मटसार जीवकाण्ड, गोम्मटसारकर्मकाण्ड, राजवात्तिक, त्रिलोकसार, हरिवंश पुराण, महापुराण और अर्थ संदृष्टि प्रमुख हैं। महावीराचार्य नाम के एक विद्वान् ने ई. सन् ८१४-८७८ में, ‘गणितसार संग्रह', एक संस्कृत ग्रन्थ की रचना की थी। कणाद से प्रायः दो सौ वर्ष पूर्व एक आचार्य उमास्वाति हुए हैं। उन्होंने एक प्रसिद्ध ग्रन्थ 'तत्त्वार्थसूत्र' की रचना की। उसमें पुद्गल के अविभागी प्रतिच्छेद की चर्चा है। अनंत १. श्री लक्ष्मीचन्द जैन, भारतीय लोकोत्तर गणित विज्ञान के शोधपथ, भिक्षु अभिनन्दन ग्रन्थ, पृष्ट २२५. २. महावीराचार्य का प्रसिद्ध ग्रन्थ 'गणितसार संग्रह' मद्रास गवर्नमेण्ट ने, १९१२ में मद्रास से, मि० रङ्गाचार्य एम० ए० रायबहादुर के अंग्रेजी अनुवाद और डॉ० यूजीन स्मिथ की भूमिका के साथ प्रकाशित किया था। भमिका से स्पष्ट है कि महावीराचार्य के अनेक करणसूत्र , लीलावती के रचयिता भास्कराचार्य (१११४-११८४) के सूत्रों से अधिक सुगम, सही और पूर्ण हैं । यह ग्रन्थ एक अधिकार और आठ व्यवहारों में विभक्त है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003641
Book TitleBrahmi Vishwa ki Mool Lipi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsagar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1975
Total Pages156
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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