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________________ १२४ सुखमा, सुखमा-दुखमा, दुखमा-सुखमा, दुखमा, दुखमा-दुखमा । दुखमा-दुखमा, दुखमा, दुखमा-सुखमा, सुखमा-दुखमा, सुखमा, सुखमा- सुखमा ।।"१ इसको एक चक्र की आकृति के माध्यम से भलीभाँति समझा जा सकता है-- १२ 马对阿玛科和 REngs | BHEE 회지 외 मर Gy Nc Nav on जैनाचार्यों ने जितना अध्यात्म पर बल दिया, उतना ही गणित पर । उनके ग्रन्थों में समुन्नत गणित के दर्शन होते हैं। आज उसको समझने और जानने की आवश्यकता है। यदि गणित के अनुसन्धित्सु जैन ग्रन्थों को देखें, तो निसन्देह नये अध्याय मिलेंगे। उससे प्राचीन भारत के अन्धकार पक्ष पर अधिकाधिक प्रकाश पड़ सकता है। जिनेन्द्र वर्णी ने अपने 'जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश' में लिखा है, “यद्यपि गणित एक लौकिक विषय है, परन्तु आगम के करणानुयोग विभाग में सर्वत्र इसकी आवश्यकता पड़ती है। कितनी ऊँची श्रेणी का गणित वहाँ प्रयुक्त हुआ, यह बात उसको पढ़ने से ही सम्बन्ध रखती है । २ १. तत्त्वार्थसूत्र, पं० फूलचन्द सिद्धान्तशास्त्री-विवेचित, वर्णी जैन ग्रन्थमाला, वाराणसी, पृष्ठ १५७-१५८. २. जैनेन्द्र सिद्धान्तकोश, भाग २, पृष्ठ २१३. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003641
Book TitleBrahmi Vishwa ki Mool Lipi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsagar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1975
Total Pages156
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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