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________________ १२० अंक लिपि 'अंकानां वामतो गतिः' की बात कही जा चुकी है। सम्राट ऋषभदेव ने अपनी पुत्री सुन्दरी को अंक लिपि का ज्ञान करवाया था। वह दाहिनी ओर बैठी थी, अतः सुविधानुसार उसके दायें हाथ पर, भगवान् ने अपने बायें हाथ से १, २, ३, ४ आदि अंक लिखे, स्वाभावतः वह दायीं ओर से बायीं ओर चली । तब से ही अंकों की 'वामगति' मानी जाती है। इन्हीं अंकों से संख्या और गणित शास्त्र का विकास हुआ। कुछ आचार्यों ने तो 'गणियं संखाणं' शब्द का प्रयोग किया है। भगवती-सूत्र का 'गणियं संखाणं सुन्दरी ए वामेण उवइटें'१ प्रसिद्ध ही है। आचार्य पुष्पदन्त के महापुराण में भी 'दोहि मि णिम्मलकं च न वण्णहं अक्खरगणिइयंकण्णंह'२ लिखा मिलता है । आचार्य दामनन्दि ने तो 'वामहस्तेन सुन्द- गणितं चाप्यदर्शयत्'3 लिखा ही है। शत्रुञ्जय काव्य में 'सुन्दरी गणितं तथा प्रसिद्ध है । अंक लिपि है, गणित शास्त्र है। यह सिद्ध है कि ऋषभदेव ने अपनी सुन्दरी को अंकलिपि सिखायी थी। गणित अंकों पर ही आधृत है, अतः परवर्ती आचार्यों ने उसे गणित ही कहा। इस अवधारणा से, भगवानलाल इन्द्राजी का यह अभिमत कि ब्राह्मी के संख्यांकों का मूल भारतीय है, पुष्ट होता है। दूसरी ओर, डॉ. बूलर का यह मत कि इन चिह्नों संख्यांकों का विकास ब्राह्मण अध्यापकों ने किया, क्योंकि वे उपपध्मानीय के दो रूप प्रयोग में लाते है, जो निःसन्देह शिक्षा के अध्यापकों का आविष्कार है,६ टिक नहीं पाता। यहाँ 'विकास' का अर्थ शायद 'उत्पत्ति' से है, तात्पर्य है कि ब्राह्मण अध्यापकों ने अंक लिपि का आविष्कार किया, किन्तु जैन उद्धरणों से सिद्ध है कि उसके जन्मदाता थे ऋषभदेव-ईसा से सहस्रों वर्ष पूर्व । तीर्थंकर महावीर जिस कड़ी के अन्तिम छोर थे, ऋषभदेव उसके आदि थे। ये वही ऋषभदेव थे, जिनका उल्लेख ऋग्वेद से लेकर श्रीमद्भागवत् तक में पाया जाता है, जिनके दादा नाभिराय के नाम पर इस देश का नाम 'अजनाभवर्ष' और ज्येष्ठ पुत्र भरत के नाम पर भारतवर्ष पड़ा। ये वही ऋषभदेव थे, जिन्होंने असि, मसि, कृषि में यहाँ के रहने वालों को निष्णात बनाया और जिन्होंने नाना कलाओं में अपने पुत्र-पुत्रियों १. अभिधान राजेन्द्रकोश, भाग २, पृष्ट ११२६. २. पुष्पदन्त, महापुराण, ५/१८. ३. पुराणसार संग्रह, ३/१४. ४. शत्रुञ्जय काव्य, ३/१३०. ५. भारतीय पुरालिपिशास्त्र, पृष्ट १६८. ६. वही, पृष्ठ १६६. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003641
Book TitleBrahmi Vishwa ki Mool Lipi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsagar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1975
Total Pages156
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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