SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 132
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ और प्रजाजनों को कुशलता दी।' यह एक ऐतिहासिक तथ्य है, कोई श्रद्धा विगलित पौराणिक गप्प नहीं। इस अंक प्रणाली को जैनाचार्यों ने आगे बढ़ाया। उन्होंने दाशमिक विद्या को जन्म दिया । जैन ग्रन्थ भण्डारों के ताड़पत्र और भोजपत्रों के पृष्ठ-संख्यांक इसके साक्षी हैं । कीलहान ने अपनी रिपोर्ट (१८८०-८१) में लिखा है, "जैनों की ताड़पत्रों की पोथियों और कागज के हस्तलिखित ग्रंथों में इनके दाशमिक अंकों के बहुत-से उदाहरण मिलते हैं । इस सन्दर्भ में डा. बूलर का एक कथन दष्टव्य है, "अपनी पोथियों के पृष्ठांकन में जैन और बौद्ध प्रायः १ से ३ के लिए दाशमिक अंकों का प्रयोग करते हैं । पुस्तकों के संख्यांक सूचक अक्षर ए (एक), द्वि, त्रि या स्व (१), स्ति (२), श्री (३) मिलते हैं, पर दाशमिक अंकों से कम । 'स्वस्ति श्री' प्रसिद्ध मंगलवाचक पद है, जिससे प्रलेखों का प्रारम्भ होता है । कभी-कभी एक ही प्रलेख में दाशमिक प्रणाली के शून्य और अन्य संख्यांकों के साथ-साथ प्राचीन संख्यांक सूचक चिन्ह भी मिलते हैं।" 3 इससे सिद्ध है कि जैन ग्रन्थों में दाशमिक अंकों का प्रयोग अधिक-से-अधिक होता था । वे ही इसके आविष्कारक थे। ___ अंकों से संख्या और संख्या से कालगणना का जैसा विवेचन जैन ग्रंथों में मिलता है, अन्यत्र नहीं। आचार्य यतिवृषभ का 'तिलोयपण्णत्ति' एक प्राचीन ग्रन्थ है। उसकी रचना विक्रम की सातवीं शताब्दी में हुई, ऐसा विद्वानों का मत है। वह प्राकृत भाषा का एक सामर्थ्यवान् ग्रन्थ माना जाता है । उसमें काल और उसकी गणना का विवेचन है। आचार्य यतिवृषभ ने 'व्यवहार काल' की परिभाषा देते हुए लिखा है-- "समयावलि उस्सासा पाणाथोवा य आदिया भेदा । ववहारकालणामा णिहिट्ठा वीयराएहि ॥२८४॥ परमाणुस्स णियद्विवगयणपदेसस्सदिक्कमणमेत्तो । जो कालो अविभागी होदि पुढं समयणामा सो ॥२८५॥" --तिलोयपण्णत्ति ४।२८४-८५ अर्थ--समय, आवलि, उच्छ्वास, त्राण और स्तोक इत्यादि भेदों को वीतराग तीर्थकर ने व्यवहार काल के नाम से निर्दिष्ट किया है। पुद्गल परमाणु का, निकट में स्थित, आकाश प्रदेश के अतिक्रमण प्रमाण जो अविभागी काल है, वही 'समय' नाम से प्रसिद्ध है। १. देखिए मेरा ग्रन्थ-भरत और भारत. २. कीलहान, रिपोर्ट आन दि सर्च फार संस्कृत मैन्युस्क्रिप्ट्य, १८८०-८१, सं ० ५८. ३. भारतीय पुरालिपिशास्त्र, पृष्ठ १६०. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003641
Book TitleBrahmi Vishwa ki Mool Lipi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsagar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1975
Total Pages156
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy